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________________ विभीषण का राज्यतिलक | ४०१ -क्या होगा कुशल-समाचार भेजकर ? - क्यों? -मैं तुम्हारी भेंट का वचन देकर आया हूँ। राम ! मातृप्रेम की गहराई पर विचार करो । वे तुम्हारे वियोग में व्याकुल हैं। तुम्हें साक्षात देखे विना उन्हें कैसे सन्तोष होगा ? राम भी माताओं और भाइयों के दुख से दुखी हो गये । उन्होंने विभीषण से कहा• -लंकापति ! हमारा जाना आवश्यक है । अव हमें जाने दो। विभीषण विनम्र स्वर में वोला- --स्वामी ! वैसे तो मैं आप लोगों को न जाने देता किन्तु माताओं को दुःखी भी नहीं देख सकता । पर मेरी एक विनय स्वीकार कीजिए। -वह क्या ? -केवल सोलह दिन और रुक जाइए। ' -क्यों ? विभीषण ने अपनी इच्छा वताई -तव तक मैं लंका के कुशल कारीगरों को भेज कर अयोध्यापुरी को और भी सुन्दर वनवा दूंगा। राम ने व्यथित स्वर में उत्तर दिया -विभीषण ! तुम अयोध्या को सुन्दरता बढ़ाते रहोगे और माताओं के दुःख का क्या होगा ? जब से नारदजी ने मुझे बताया है मेरा हृदय व्याकुल हो गया है। -मेरे दूत आपके आगमन की सूचना अयोध्या में शीघ्र ही पहुँचा देंगे । केवल सोलह दिन लंका-निवास की मेरी अनुनय मान जाइये । -विभीषण के स्वर में विनयपूर्ण आग्रह था।। श्रीराम उसकी इच्छा की अवहेलना न कर सके। किन्तु उन्होंने साथ ही चेतावनी भी दी
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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