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________________ विभीषण का निष्कासन | ३४३ -इन्द्रजित ! जोश में होश मत गँवाओ। राक्षसकुल के नाश का कारण बनेगा लंकेश्वर का परस्त्री दोष और तुम लोगों का अविवेक तथा दम्भ । -संसार में दो ही तो विवेकी हैं और दो ही धर्मात्मा-एक आप और दूसरे राम । निरपराध शम्बूक का वध करने वाले, वूआ (फूफी) चन्द्रनखा का अपमान करने वाले तो आपको धर्मात्मा . दिखाई दे रहे हैं और हम लोग पापी ! -इन्द्रजित उत्तेजित हो चुका था। -कामयाचना करने वाली नारी की काम-पिपासा पूर्ण न करना अपराध नहीं है, वरन् धर्म है इन्द्रजित ! -विभीषण ने भी नहले पर दहला लगाया। ..... ; अभी तक रावण बैठा सुन रहा था। विभीषण के शब्दों से उसका क्रोध उत्तरोत्तर वढ़ता जा रहा था। कुपित स्वर में उसने कहा- ... .......... . -विभीषण तुम्हारी जवान बहुत चलने लगी है। अब राक्षसकुल के लिए तुम्हारा जीवित रहना सर्वथा अनुचित है। यह कहकर रावण ने तलवार खींची और विभीषण को मारने के लिए लपका । विभीषण भी कौन कम था उसने सभाभवन का एक स्तम्भ ही उखाड़ लिया और भाई से युद्ध करने को तत्पर हो गया। दोनों भाई पैंतरे बदलने लगे। इस असह्य स्थिति को. कुम्भकर्ण न देख सका। उसने आकर विभीषण को पकड़ लिया और इन्द्रजित ने अपने पिता रावण को । आग्रहपूर्वक इन्द्रजित ने पिता को सिंहासन पर जा.विठाया। रावण क्रोध में आग-बबूला हो रहा था। गह गरजा इस विश्वासघाती और उद्दार को मेरी आँखों से दूर कर दो। इससे कह दो कि लंका से बाहर चला जाय।......
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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