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________________ ' सीता की खोज | ३१३ लिए इस वानरपति सुग्रीव' को भेजा है।' इन विचारों में निमग्न वह स्तंभित सा खड़ा रह गया । सुग्रीव ने भी उसे देख लिया था। उसके पास आकर बोला -रत्नजटी ! तुम मुझे देखकर भी खड़े रह गये । आकाश में उड़कर मिले भी नहीं । इतना आलस्य हो गया है तुम्हें ? -आलस्य नहीं मित्र ! मैं विद्याहीन हो गया हूँ। -रत्नजटी ने निराश स्वर में कहा । . -क्यों ? किसने कर दिया तुम्हें विद्याहीन ? -सुग्रीव ने विस्मित होकर पूछा। ( रत्नजटी ने बताया- . -क्या बताऊँ मित्र ! अच्छा करते, बुरा हो गया। एक बार लंकापति रावण जानकी को जवर्दस्ती विमान में विठाकर लिए जा रहा था। उसकी पुकार सुनकर मैंने बचाने का प्रयास किया तो . दशमुख ने मेरी सारी विद्याएँ -छीन लीं। अव मैं परकटे पक्षी की . भांति यहाँ अपने दिन पूरे कर रहा हूँ। जानकी का समाचार पाकर सुग्रीव की आँखों में चमक आ गई। फिर भी उसने पूर्ण रूप से आश्वस्त होने के लिए पूछा--- -कौन जानकी ? क्या तुम उससे पूर्व परिचित थे ? -हाँ मित्र ! मैं उसे पहले से भी जानता था। इसके अलावा ___“१ रत्नजटी की आशंका का कारण यह था कि सुग्रीव अभी तक रावण के अधीन राजा था। . -सम्पादक २ त्रिगुप्त और सुगुप्त दो- चारण ऋद्धिधारी देवों को दान देते समय • रत्नजटी विद्याधर ने राम-लक्ष्मण-सीता को देखा था। देखिए–'पाँच सौ श्रमणों की बलि']
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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