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________________ ३०२ | जैन कथामाला (राम-कथा) वेचैनी से इधर-उधर करवटें बदल रहा है और दीर्घ निश्वास छोड़ रहा है। विह्वल होकर मन्दोदरी ने पूछा -स्वामी ! इस तरह करवटें कब तक वदलते रहेंगे ? -और कर भी क्या सकता हूँ? -रावण ने प्रतिप्रश्न कर दिया। -वहन चन्द्रनखा विधवा हो गई, पाताल लंका का राज्य चला गया और त्रिखण्ड विजयी लंकेश मुंह छिपाये पड़ा है। क्या यह आपको शोभा देता है ? अभिमानी रावण ऐसे शब्दों को सुनकर भड़क गया होता लेकिन आज वह कामदेव के अधीन हो चूका था। उसको कोपाग्नि कामवासना ने वुझा-सी दी थी । निश्वास लेकर बोला -रानी ! जव तन-मन अस्वस्थ हो तो समर्थ भी असमर्थ हो जाता है। -असमर्थ और आप? -मन्दोदरी के स्वर में विस्मय था। -असमर्थ ही नहीं, विवश भी। मन्दोदरी ने आज से पहले दशमुख के मुख से ऐसे दीन शब्द नहीं सुने थे। वह पति का मुख देखती रह गई। बड़ी कठिनाई से बाल सकी -नाथ ! क्या है, आपकी विवशता ? -गुरु की साक्षी में लिया हआ यह नियम 'अनइच्छती परस्त्री को मैं कभी नहीं भोगंगा' मेरे हाथों की हथकड़ी और पाँवों की बेड़ी वन गया है । मेरा तन बन्धनों से जैसे जकड़ गया है। पटरानी मन्दोदरी समझ गई कि पति सीता के विरह में व्याकुल है। 'समझाने का कोई असर होगा नहीं, उपदेश से कामाग्नि और भी भड़केगी।' वह चुपचाप खड़ी रह कर विचार करने लगी। किन्तु
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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