SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ | जैन कथामाला (राम-कथा) धर्मचर्चा समाप्त होने के पश्चात राजा जितशत्रु ने दूत पालक का अभिप्राय जानकर उसे सम्मान सहित विदा कर दिया। पालक लौटकर अपने नगर आ गया। स्कन्दक ने संसार से विरक्त होकर भगवान मुनिसुव्रत नाथ के पास दीक्षा ली और तपस्यारत हुआ। एक बार उन्होंने पुरन्दरयशा को प्रतिवोध देने के निमित्त कुम्भकारकट नगर जाने की इच्छा तीर्थंकर प्रभु के समक्ष प्रकट की तो प्रभु का उत्तर था -वहाँ जाने पर तुमको शिष्य परिवार सहित मरणांतक उपसर्ग होगा। स्कन्दकाचार्य ने पुनः पूछा--प्रभु मैं धर्म का आराधक रहूँगा या विराधक हो जाऊंगा। -तुम्हारे अतिरिक्त सभी आराधक रहेंगे। -प्रभु का सारगभित संक्षिप्त उत्तर था। -तो मैं समझ लूंगा कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया ।-स्कन्दकाचार्य ने कहा। __ तीर्थंकर प्रभु मौन हो गये। स्कन्दकाचार्य ने प्रभु को नमन किया और शिष्य परिवार सहित कुम्भकारकट नगर की ओर चल दिये। ____ मुनि संघ अभी कुम्भकारकट नगर के वाहर ही था कि पालक को सूचना मिल गई। उसने दूर से आचार्यश्री को देखा तो अपना बदला चुकाने के लिए कृत संकल्प हो गया। पालक जानता था कि श्रीसंघ नगर के वाहर उद्यान में ही ठहरेगा। उसने तुरन्त अपने विश्वस्त सेवकों को बुलवाया और उद्यान में भांति-भाँति के हजारों अस्त्र-शस्त्र गढ़वा दिये। इन सबसे बेखवर श्रीसंघ नगर के वाहर उद्यान में ही ठहर गया ।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy