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________________ २१६ | जन कथामाला (राम-कथा) वज्रकर्ण से सन्धि करके उसने अपना आधा राज्य श्रीराम की साक्षी में उसे दे दिया। सभी के मुख पर प्रसन्नता चमक उठी। वज्रकर्ण का अभिग्रह पूरा हुआ । अव उसे किसी को प्रणाम करने की आवश्यकता न रही। वह स्वतन्त्र शासक वन चुका था । उसने लक्ष्मण से प्रार्थना की-आप मेरी आठ कन्याओं का परिणय कीजिए। तव तक सिंहोदर ने भी कहा -प्रभो ! मेरी और मेरे सामन्तों की तीन सौ कन्याओं को स्वीकार करने की कृपा करें। लक्ष्मण अग्रज की आज्ञा विना कुछ भी बोलने में असमर्थ थे। उनके मुख पर क्षीण सी मुस्कराहट फैल गई। राम ने उनके हार्दिक भावों को समझा और वोलने का संकेत कर दिया। अग्रज का संकेत पाकर लक्ष्मण बोले -आप लोग अपनी कन्याएँ अभी तो अपने पास ही रखें। अब तो हम लोग मलयाचल पर्वत पर जा रहे हैं। वापिस लौटते समय उनको साथ ले लेंगे। सिंहोदर और वज्रकर्ण दोनों सन्तुष्ट हुए और राम से विदा माँग कर अपने-अपने स्थानों को चले गये। -त्रिषष्टि शलाका ७५
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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