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________________ राम वन-गमन | २०५ , -पिताजी ! मैं स्वयं जाकर अग्रज को वापिस लाने का प्रयास , करूँगा। तब तक आप धैर्य रखिए। । उसी समय कैकेयी भी वहाँ आ गई। उसने पति से विनीत शब्दों में कहा -स्वामी ! आपने तो अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर ही दिया किन्तु भरत ने राज्य नहीं लिया तो आपका क्या दोष । दोष तो मेरा है। मेरे ही कारण सभी लोगों को दुःख हुआ। राम-लक्ष्मण-सीता वन के कष्ट उठा रहे हैं, सपलियों की आँखों से आँसुओं की अजस्र धारा बह रही है । सम्पूर्ण अयोध्या शोक-मग्न हो गई है। न मैं वर माँगतो और न यह दावानल सुलगता। मैं पश्चात्ताप की अग्नि में जल रही हूँ। नाथ ! मैं अपने पाप का प्रतिकार स्वयं करना चाहती हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं स्वयं आऊँ और राम को मनाकर वापिस लौटा लाऊँ। पति से आज्ञा प्राप्त करके कैकेयी भरत और मन्त्रियों के साथ चल पड़ी। छह दिन की यात्रा के पश्चात सव वनवासी राम के पास जीवन व्यतीत कर रहे थे। उन वृद्ध तपस्वियों का शाप ही इस समय फलीभूत हुआ और राजा दशरथ ने राम के वियोग में प्राण छोड़ दिये । (वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड) यहीं उस मुनिकुमार का नाम नहीं दिया गया और न ही यह बताया गया है कि वह अपने माता-पिता को कांवर में बिठाकर तीर्थयात्रा कर रहा था । -सम्पादक तुलसीकृत रामचरित मानस में भी श्रवणकुमार नाम से घटना का वर्णन नहीं है। राम के वन जाने के बाद शोक विह्वल राजा को अन्धे तापस के शाप की स्मृति हो आई और उन्होंने वह सम्पूर्ण कथा कौशल्या को कह सुनाई। (अयोध्याकाण्ड दोहा १५५ के अन्तर्गत चौपाई संख्या २)
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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