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________________ २०२ | जैन कथामाला (राम-कथा) सम्पूर्ण जनता की सहानुभूति और सद्भावना उन दोनों के लिए उमड़ी पड़ रही थी । उनके इस अनुपम त्याग की यशः पताका आज तक गाई जा रही है और भविष्य में भी गाई जायगी । भारत की नारियाँ अपना आदर्श सती सीता को ही मानती चली आ रही हैं और भविष्य में भी मानेंगी। राम-सीता के वन-गमन के समाचार ने एकवारगी तो लक्ष्मण की क्रोधाग्नि भड़का दी । किन्तु दूसरे ही क्षण वे अग्रज के शील स्वभाव का विचार कर शान्त हो गये । वे भली-भाँति जानते थे कि श्रीराम दृढ़ प्रतिज्ञ और त्यागी पुरुष हैं। राज्य का, वैभव का मोह उन्हें छू भी नहीं गया है । भरत और कैकेयी पर आया हुआ उनका कोप भी शान्त हो गया । वे अपनी माता सुमित्रा के पास पहुँचे और उससे राम के साथ वन जाने की आज्ञा माँगी | सुमित्रा ने पुत्र को आज्ञा देते हुए कहा - गावाश पुत्र ! तुमने मेरी कोख उज्ज्वल कर दी । अग्रज के प्रति ऐसा ही अनन्य प्रेम अनुज का होना चाहिए । माता के उत्साहजनक वचनों से लक्ष्मण का मुख खिल गया । वे प्रसन्नवदन अन्य माताओं और पिता दशरथ से भी आज्ञा लेकर तपस्वी वेश में चल पड़े । श्रीराम कुछ आगे निकल गये थे अतः लक्ष्मण तीव्रगति से चलकर उनके पास पहुँचे और उनके पीछे-पीछे चलने लगे । राम-लक्ष्मण और सीता के त्याग ने रानी कैकेयी का अपवाद फैला दिया | सभी कैकेयी को बुरा-भला कहने लगे । भरत को भी अपनी माता पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने राज्य तो क्या अपने शरीर से भी मोह छोड़ दिया और अग्रज के वियोग में मछली की तरह तड़पने लगे । सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न की दशा भी अच्छी न थीं । वे भी वियोगकातर वने एकान्त में रुदन करते रहे ।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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