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________________ १८८ | जैन कथामाला (राम-कथा) -किन्तु क्या? ___-पुत्री का विवाह आपके पुत्र से नहीं कर सकता। मैं विवश हूँ। -आप तो विवश हैं या नहीं राजन् ! मैं अवश्य विवश हूँ धर्म और नीति के हाथों-अन्यथा आपके स्थान पर यहाँ आपकी पुत्री सीता होती । मैं धर्म का मार्ग नहीं छोड़ना चाहता। —यही विवशता तो मेरी है विद्याधरपति । मैं सीता का वाक्दान दशरथनन्दन राम के साथ कर चुका हूँ। -आप सत्य कह रहे हैं, नरेश? -आर्हतधर्मानुयायी मिथ्यावादी नहीं होते, खेचरपति ।। विद्याधर चन्द्रगति अब विचार में पड़ गया। एक ओर पुत्र-मोह था तो दूसरी ओर धर्म-मोह। धर्म का दामन वह छोड़ना नहीं चाहता था और पुत्र को प्रसन्न देखने की भी इच्छा थी। उसने मध्यम मार्ग खोज निकला। राजा जनक से उसने कहा -राजन् ! यवि राम पराक्रमी है तो वह हमें पराजित करे। इसके लिए मैं हिंसात्मक युद्ध नहीं चाहता । हमारे घर में कुलपरम्पग से पूज्य वज्रावर्त और अर्णवावर्त दो धनुष हैं । एक सहस्र यक्ष इनकी रक्षा करते हैं। इनका तेज दुःसह है। इनका उपयोग भावी वलभद्र और वासुदेव ही कर सकेंगे। यदि राम इनमें से एक को भी चढ़ा दे तो हम स्वयं को पराजित मान लेंगे और राम सुखपूर्वक सीता से विवाह करले । आपको स्वीकार है ? • मस्तिष्क में देर तक ऊहापोह करके जनक बोले -बड़ी कठिन शर्त है, खेचरपति ! ~-इसमें आपका सम्मान भी रह जायगा और हमारा भी । यदि राम धनुप को न चढ़ा सका तो आप अपने वचन से मुक्त हो जायेंगे और सीता भामण्डल को प्राप्त हो जायगी।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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