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________________ राम-लक्ष्मण का जन्म ] १६१ विभीपण का कार्य पूरा हो चुका था किन्तु इसकी प्रतिक्रिया जानने की इच्छा उसके हृदय में शेप थी। वह अपने कार्य में किसी प्रकार की कमी नहीं रहने देना चाहता था । अदृश्य रहकर वह अन्तः .पुर की निगरानी करने लगा। रात्रि के तीसरे पहर में तो उसने हत्या की ही थी और अन्तिम प्रहर में ही अन्तःपुर से करुण क्रन्दन का स्वर फूट पड़ा। रानियों के के रुदन से दिशाएँ गंजने लगी। समस्त अयोध्या शोकसागर में डूब गई। राजा का अन्तिम संस्कार विभीपण ने अपनी आँखों से देख लिया तो सन्तुष्ट होकर विचार करने लगा 'दशरथ तो यमलोक पहुँच ही गया। अव जनक को मारने से क्या लाभ ? राक्षसराज की मृत्यु तो दशरथ-पुत्र के द्वारा ही होनी थी। व्यर्थ का रक्तपात नहीं करना चाहिए।' यह निश्चय करके वह लंका वापिस लौट गया। उसे विश्वास था कि रावण के प्राणों की रक्षा उसने अपने इस कुकर्म से करली और निमित्तन के कथन को मिथ्या सिद्ध कर दिया। xx - मिथिलापति जनक और अयोध्यापति दशरथ दोनों ही वनों में भटकते-भटकते आपस में मिल गये। समानधर्मी मित्रता होती है। अतः दोनों में शीघ्र ही मित्रता हो गई। दोनों मित्र साथ-साथ रहने लगे। - घूमते-घामते वे उत्तरापथ की ओर जा निकले । वहाँ कौतुक- . मंगल नगर में कैकेयी का स्वयंवर हो रहा था। कैकेयी नगराधिपति राजा शुभमति और रानी पृथ्वीश्री को पुत्री तथा कुमार द्रोणमेघ की बहन थी । स्वयंवर में हरिवाहन आदि बड़े-बड़े पराक्रमी राजा सम्मिलित हुए थे। अनिंद्य सुन्दरी कैकेयी के स्वयंवर में दशरय और जनक दोनों मित्र भी पहुंचे और आसनों पर जा बैठे।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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