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________________ रानी सिंहिका का पराक्रम | १४७ कि समर्पण का परिणाम होगा घोर तिरस्कार | तिरस्कृत जीवन से सम्मानित मृत्यु हजारों गुनी श्रेष्ठ है । - अयोध्या में युद्ध की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई। नगर का बच्चाबच्चा वीर रस से ओत-प्रोत हो गया । नगर के फाटक खुले । शत्रु राजा तो समझ रहे थे कि उन्हें नगर प्रवेश का आमन्त्रण मिलेगा किन्तु मिला युद्ध का निमन्त्रण | अयोध्या की सेना युद्ध के लिए उतावली थी और नेतृत्व कर रही थी - रानी सिंहिका । राजा लोग विस्मित रह गये किन्तु युद्ध तो करना ही था । वे भी सम्मुख आ डटे | 1 युद्ध प्रारम्भ हुआ । दोनों ओर की सेनाओं में महान अन्तर थाभावनाओं का । शत्रु पक्ष के सैनिक सोच रहे थे— जीवन वचा तो सुख भोगों की प्राप्ति होगी और अयोध्या के सैनिकों की भावना थी- रणभूमि में मृत्यु का अर्थ है सम्मान और प्राण बचाने का अर्थ है तिरस्कार । वे जीवन की चिन्ता छोड़कर जी-जान से लड़े । सिंहिका ने भी अपना नाम सार्थक कर दिया । कुशल सैन्य संचालन, अद्भुत पराक्रम, दुर्दमनीय साहस और अद्वितीय वीरता के साथ-साथ अस्त्रशस्त्र विद्या में निपुणता ने शत्रुओं को पस्त कर दिया । वे रण छोड़कर भागने लगे । 1 सिंहिका के मुख से निकला — मैं तो समझती थी कि हाथियों की तरह कुछ समय तक तो मुकाबला करेंगे । ये तो गोदड़ों की भाँति ही कायर निकले । अयोध्या की सेना विजय पताका फहराती हुई वापिस नगर में लौट आई । रानी के साहस की प्रशंसा सभी करने लगे । सभी के मुख पर
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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