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________________ १४२ | जैन कथामाला (राम-कथा) और प्रवजित हो गये । सांसारिक नाते से पिता-पुत्र और श्रमण नाते से गुरु-शिष्य मुनि कीर्तिधर और सुकोशल कठोर तपस्या करते हुए .. ममता-रहित और कषायवर्जित भाव से पृथ्वी तल पर विचरण करने लगे। रानी सहदेवी की शंका सत्य सिद्ध हुई। पिता के दर्शन करते ही पुत्र प्रवजित हो गया। वह पति और पुत्र वियोग से वहुत दुःखी हुई। रात-दिन इष्ट वियोग रूप आर्तध्यान करने लगी। आर्तध्यानपूर्वक मरण करके वह किसी गिरि-गुफा में बाधिन वनी। मुनि कीर्तिधर और सुकोशल ने एक पर्वत की कन्दरा में चातुर्मास. किया । कार्तिक मास समाप्त होने पर (कार्तिक मास में बरसात का समय समाप्त हो जाता है और मुनियों का चातुर्मास भी) दोनों जितेन्द्रिय और शरीर से अनासक्त मुनि पारणे के निमित्त वहाँ से चले। मार्ग में यमदूती के समान भयंकर वाघिन दिखाई पड़ी। मुनियों ने बाघिन को और बाघिन ने मुनियों को नजर भरकर देखा । वाधिन के हृदय में पूर्व-भव के वैर के तीन संस्कार जाग्रत हुए। उसकी आँखें लाल हो गईं। क्रोध की प्रबल अग्नि समूचे शरीर में व्याप्त हो गई । उसने भयंकर गर्जना की और कुपित होकर छलांग लगा दी। __ वाघिन की क्रूर चेष्टाएं देखकर दोनों मुनियों ने समझ लिया कि घोर उपसर्ग आ गया है। वे शरीर से निस्पृह तो थे ही तुरन्त कायोत्सर्ग लगाकर ध्यानलीन हो गये । अडोल अकंप दशा में स्थिर मुनि देह में अनासक्त हुए परम उच्च समता भावों में लीन थे। उन्हें पता ही न लगा कि कब बाधिन ने उन पर आक्रमण किया। छलांग लगाकर वाघिन ने पहले तो सुकोशल मुनि को दबोच लिया। क्रूरतापूर्वक अपने नखों से उनके शरीर को विदीर्ण करने
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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