SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हनुमान का जन्म | ११७ अंजना ने स्वीकृति दी । दोनों सखियों ने एक दूसरी के सहारे से गुफा में प्रवेश किया - सामने ही मुनि अमितगति ध्यानमग्न खड़े थे । तन-मन को विश्रान्ति सी मिली और दोनों सखियाँ वहाँ मौन होकर बैठ गईं । मुनिश्री का ध्यान पूर्ण हुआ तो दोनों ने भक्तिपूर्वक वन्दना की और वसन्ततिलका ने कहा - गुरुदेव ! मेरी सखी ने ऐसा क्या घोर पाप किया है जिसके कारण यह ऐसा हृदयद्रावी कष्ट भोग रही है ? मुनिश्री ने उसके पूर्वजन्म की घटना सुनाकर बताया- पूर्वजन्मः में कृत दुष्कर्मों के कारण ही इस पर यह आपत्ति आई है । - प्रभो ! इसके गर्भ में कौन है ? वसन्ततिलका ने पूछा मुनिराज बताने लगे - इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मन्दर नाम के नगर में प्रियनन्दी नाम का एक वणिक रहता था । उसकी जया नाम की पत्नी से दमयन्त नाम का पुत्र हुआ । * दमयन्त एक दिन उद्यान क्रीड़ा के लिए गया तो वहाँ उसे एक: मुनि के दर्शन हुए | उनसे धर्म श्रवण करके सम्यक्त्व सहित कई व्रत ग्रहण किये । निष्ठापूर्वक व्रतों का पालन करता हुआ मरकर वह.. दूसरे देवलोक में परमर्द्धिक देव हुआ। वहाँ से च्यवकर मृगांकपुर के राजा वीरचन्द और रानी प्रियंगुलक्ष्मी का पुत्र सिंहचन्द्र बना। इस जन्म में भीधर्म का पालन करके देवलोक को गया । पुनः वैताढ्यगिरि पर अवस्थित वारुण नगर के राजा सुकण्ठ की रानी कनकोदरी के गर्भ से सिंहवाहन नाम का पुत्र हुआ । चिरकाल तक राज्य भोगकर तीर्थंकर विमलप्रभु के तीर्थ में लक्ष्मीधर मुनि के पास दीक्षा ग्रहण कर ली । दुस्तर तप करके कालधर्म प्राप्त किया और लांतक स्वर्ग में देव चना । वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वह देव तुम्हारी सखी की कुक्षि में अवतरित हुआ है ।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy