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________________ सती अंजना | १११ दिन बीते, मास गुजरे और वर्ष निकल गये। महल के दास__ दासी भी अंजना के दुःख से दु:खी थे । वह रात-दिन मछली की भाँति तड़पती किन्तु पवनंजय का हृदय न पसीजा। प्रतीक्षा करते-करते अंजना को कई वर्ष गुजर गये । धन्य था उसका धैर्य कि पति-स्मरण एक क्षण को भी नहीं भूली। . - xxx . आदित्यपुर की राज्य सभा में लंकापति रावण का दूत आया और कहने लगा -राजन् ! दुर्मति वरुण ने लंकापति से शत्रता मोल ले ली है। उसको निर्मद करने हेतु खर-दूषण राक्षस सेना के साथ गये तो उसने अपने वीरपुत्रों राजीव और पुण्डरीक आदि के साथ युद्ध में पराजित करके उनको बन्दी बना लिया। अव वह और भी गर्वोक्ति करने लगा है। इसलिए लंकापति स्वयं उसका मान मर्दन करने जा रहे हैं। उनकी इच्छा है आप भी उनकी सहायता करें। लंकापति की इच्छा प्रह्लाद के लिए आदेश थी । वे सैन्य सजाकर चलने को उद्यत हुए तो पवनंजय ने कहा___-पिताजी ! मेरे रहते हुए आपको जाने की आवश्यकता नहीं। आप मुझे आज्ञा दीजिए। पिता ने पुत्र की बात मान ली। पवनंजय ने प्रयाण आरम्भ किया। उस समय अंजना सातवीं मंजिल से उतरकर महल के मुख्य द्वार के खम्भे से टिक कर खड़ी हो गई। परित्यक्ता का तन सूखी लकडी के समान हो गया था-सौंदर्य विहीन उलझे वाल वाली अंजना पति के समीप आते ही उनके चरणों में गिरकर वोली -नाथ ! आप सबकी खबर रखते हैं किन्तु आज तक मुझे भूले माना करें।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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