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________________ २ | जैन कथामाला (राम-कथा) वनमाला के चले जाने के पश्चात् प्रभव का हृदय पश्चात्ताप की अग्नि में जलने लगा । अपने आपको धिक्कारते हुए हाथ में तलवार लेकर अपने कण्ठच्छेद को तत्पर हुआ । उसी समय सुमित्र ने गुप्त स्थान से निकलकर मित्र का हाथ पकड़ लिया और वोला - अरे मित्र ! ऐसा दुस्साहस मत करो । मित्र को सम्मुख देखकर प्रभव लज्जा से गड़ गया । उसके मन में विचार आया- 'काश ! जमीन फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ ।' किन्तु न जमीन फटी और न वह उसमें समाया । कहीं मन के विचारों से जमीन फटती है ? सुमित्र ने उसे बड़ी कठिनाई से समझाकर स्वस्थ - चित्त किया । प्रभव ने भी हार्दिक पश्चात्ताप प्रकट किया। दोनों मित्रों के हृदय में किसी प्रकार का कलुष न पहले था और न इस घटना के उपरान्त ही आया । उनकी मित्रता पूर्ववत ही बनी रही । इस घटना की जानकारी भी इन तीनों के अतिरिक्त और किसी को न हो सकी । कुछ काल वाद सुमित्र ने संयम धारण कर लिया । तपस्या के प्रभाव से मृत्यु के उपरान्त वह ईशान देवलोक में देव हुआ । वहाँ से अपना आयुष्यपूर्ण करके मथुरा नगरी के राजा हरिवाहन की रानी माधवी के गर्भ से मधु नाम का पूत्र हुआ । चमरेन्द्र ने मुझको सम्बोधित करते हुए कहा - मधु ! तुम ही मेरे पिछले भव के मित्र सुमित्र के जीव हो और मैं प्रभव का जीव । मैं चिरकाल तक भवभ्रमण करने के पश्चात विश्वावसु की स्त्री ज्योतिर्मती से श्रीकुमार नाम का पुत्र हुआ । उस जन्म में निदानपूर्वक तप करने के कारण चमरेन्द्र हुआ हूँ ।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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