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________________ हिंसक यज्ञों के प्रचार की कहानी | ८१ सगर के पुरोहित वैठे ही थे। सभी की दृष्टि उनकी ओर उठ गई। समवेत स्वर गूंजा-कहिए पुरोहित जी ! है कोई ग्रन्थ आपके पास ? पुरोहितजी इसी अवसर की ताक में तो थे । वोले है तो सही। किन्तु उसके अनुसार कार्य न किया गया तो वताने से क्या लाभ ? -~-क्यों ? कार्य क्यों नहीं होगा ? ----मेरा आशय है उपस्थित राजाओं में से जिसमें भी वे' राजलक्षण नहीं होंगे तो क्या उसे स्वयंवर में भाग लेने से रोक दिया जायगा। ___-अवश्य ! ऐसा पुरुष राज-पुत्र हो ही नहीं सकता फिर हम लोगों के बीच बैठने का उसको क्या अधिकार? -आप सभी लोग गम्भीरतापूर्वक विचार करके बताएँ । हो सकता है आप लोगों में से ही कोई ऐसा निकल आये। ---हम सब इसके लिए तैयार हैं जो भी उस कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा । वह स्वेच्छा से स्वयंवर छोड़कर चला जायगा और स्वयंवर ही क्या राज्य का भी त्याग कर देगा। -सभी राजाओं ने समवेत स्वर में स्वीकृति दे दी। . सेवकों द्वारा पुरोहितजी ने पुस्तक मँगवाई । सभी को दिखाकर उसके पुराने होने की प्रामाणिकता करा ली। पुरोहितजी उसे पढ़ने लगे। ज्यों-ज्यों वे पुस्तक पढ़ते जाते मधुपिंग का मुख पीला पड़ता जाता और पुस्तक समाप्ति पर मधुपिंग
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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