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________________ मरुतराजा को प्रतिबोध | ६३ पराजित से चले गये और वन्धनमुक्त होकर पशु कुलाँचे भरते हुए प्रसन्नमन चारों दिशाओं में भाग गये। राक्षसेन्द्र की प्रेरणा से यज्ञ भंग हो गया। तभी से इस वर्ग ने रावण को यज विरोधी, यज्ञों को नष्ट-भ्रष्ट करने वाला, धर्मद्रोही, पापी आदि कहकर वदनाम करना प्रारम्भ कर दिया और उसका यह अपवाद इतना बढ़ा कि रावण नाम ही लोक में पाप का प्रतीक हो गया। उसका यह अपयश चिरकाल से अब तक चला आ रहा है और न जाने कब तक चलेगा ! पशुओं को प्रसन्नहृदय उछलते-कूदते जाते देखकर रावण का कोप शान्त हो गया। मरुतराजा ने बड़े आदर और सम्मानपूर्वक उसे विठाया। नारद को भी योग्य आसन मिला। मरुतराजा ने विश्वास दिलाया -लंकापति ! मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि अब कभी यज्ञ के प्रपंच में नहीं पड़ेगा। जोव-दया धर्म का पालन ही मेरे जीवन का ध्येय होगा। हिंसक यनों से विमुख करके आपने मुझे नरकवास से बचा लिया । आपका यह उपकार कभी नहीं भूलूँगा। रावण ने उत्तर दिया -उपकार की बात नहीं, मरुतराज ! प्राण सभी को प्यारे होते हैं। मरना कोई नहीं चाहता। धर्म का मूल है 'जो तुम्हारी आत्मा को बुरा लगे वैसा व्यवहार किसी अन्य के साथ मत करो।' सदैव इसे मूलमन्त्र मानकर मनुष्य को आचरण करना चाहिए । नारद को सम्बोधित करके उसने पूछा -मुनिवर ! शाश्वत अर्हन्त धर्म के विपरीत यह हिंसा-धर्म का प्रचलन कैसे हो गया ? देवर्षि ने बताया
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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