SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाबली बाली | ४६ रावण गर्व में चूर तो था ही । एक हजार विद्या और चन्द्रहास __ खड्ग को सिद्ध करके वह स्वयं को अपराजेय समझने लगा था । दर्पपूर्ण गर्जना करते हुए कहने लगा -~~-हाँ ! तुम्ही ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। तुमको ही अपने चरणों में नतमस्तक करके मुझे शान्ति मिलेगी। यह कहकर रावण ने युद्ध बन्द करने का आदेश दे दिया। दोनों ओर के सुभट खड़े होकर अपने स्वामियों का युद्ध देखने लगे। अब युद्ध प्रारम्भ हुआ-उपशान्त कषायी वाली और प्रबल कपायी रावण के मध्य । शारीरिक वल में रावण पराजित हो गया तो उसने विद्या वल का आश्रय लिया। एक-एक करके उसने अपनी सभी विद्याओं का प्रयोग कर लिया किन्तु परमाहत वाली के समक्ष सभी निष्फल हुई। कषायों के आवेश में रावण यह भूल गया था कि स्वयं इन्द्र भी श्रावकों का वन्दन करते हैं तो इन क्षुद्र विद्याओं की गिनती ही क्या? लगातार पराजय से खीझकर रावण हाथ में चन्द्रहास खड्ग लेकर वाली को मारने के लिए दौड़ पड़ा । वाली ने साधारण लकड़ी के खम्भे के समान उसे वाँए हाथ से उठाया और चन्द्रहास खड्ग सहित बगल में दवा लिया। वानरेन्द्र बाली उसे वगल में दवाए हुए ही चार समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का चक्कर लगाकर वहीं वापिस आया। तब तक राक्षसराज उसकी बगल में दवा हुआ छटपटाता ही रहा । दया करके वाली ने रावण को छोड़ा तो लज्जावश नीचा मुख करके खड़ा ही रह गया। बाली ने ही उसे संबोधित किया -हे रावण ! संसार में पंच परमेष्ठी के सिवाय कोई भी नमस्कार योग्य नहीं है । तुम्हारे गर्व को धिक्कार हो जो तुमने साधर्मी बन्धु
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy