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________________ तिरछे शरीर से खड़ी हुई स्त्रियों के लिए तोरणशाल मंजिका कहा गया है। कुषाण काल में अश्वघोष ने इसका उल्लेख किया है।25 मथुरा के कुषाण कालीन वेदिका स्तम्भों पर निर्मित इसी प्रकार की स्त्रियों को स्तम्भशालामंजिका कहा गया है ।26 कालिदास ने स्तम्भों पर बनी योषित मूर्तियों का उल्लेख किया है।27 उदद्योतनसूरि ने इन्हीं को शालमंजिका एवं वरयुवति कहा है शालमञ्जिका की परम्परा मध्यकालीन स्थापत्य एवं साहित्य दोनों में ही परिलक्षित होती है। तुलसीदास ने भी इनका उल्लेख किया है इस प्रकार भारतीय स्थापत्य की यह विशेषता लगभग दो सहस्र वर्षों तक अक्षुण्ण बनी रही है ।28 कुवलयमाला में प्रतिमाओं के विभिन्न आसनों का वर्णन प्राप्त होता है ।29 (1) प्रतिमागता (पडिमा गया) (2) नियम में स्थित (णियम-ढिया) (3) वीरासण (विरासणट्टिया (4) कुक्कुट आसन (उक्कुडुयासण) (5) गोदोहन आसन (गोदोहसंठिया) (6) पद्यसन पउमासण-टिय प्रतिमाविज्ञान में आसनों का विशेष महत्व है। किस देवता की मूर्ति किस आसन में बनायी जाय इसमें दो बातों का ध्यान रखा जाता था। प्रथम देव के स्वभाव एवं पदप्रति के कारण अनुकूल आसन स्थिर किया जाता था। दूसरे ध्यान एवं योग की सिद्धि के लिए प्रतिमाओं को विशेष आसन प्रदान किये जाते थे30 क्योंकि उपास्य एवं उपासक दोनों में एकात्माकता आवश्यक समझी जाती थी 1 कुवलयमाला के उपर्युक्त संदर्भ में जैन साधु उन्हीं आसनों (प्रतिमाओं) में स्थित होकर ध्यान कर रहे थे, जिन से उनकी चित्त वृत्ति का विरोध हो सके। इन आसनों का प्रतिमा स्थापत्य में भी प्रभाव रहा है। सरस्वती के स्वरूप का चित्रांकन खजुरा हो की दीवालों पर देखने को मिलता है, वहाँ वह अपने वाहन हंस पर आसीन हाथ में वीणा लिये हुये हैं।32 भरहुत की वेदिका के स्तम्भों पर हमें लक्ष्मी के विकसित दो स्वरूप प्राप्त होते हैं। एक बैठा हुआ33 तथा दूसरा खंड़ा हुआ। बैठी हुई मूर्ति योगासन की मुद्रा में दोनों हाथ ( 183)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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