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________________ नवीं-दसवीं, शताब्दी के पूर्व जैन-कथा-साहित्य के रचयिताओं के द्वारा रचित कथा-साहित्य की संख्या बहुत अल्प थी, ॥ वीं से 12 वीं शताब्दी के लेखकों में एक नवीन जागृति का आविर्भाव हुआ जिसके परिणाम स्वरूप दो-तीन सौ वर्षों के अन्दर बहुत से नये कथा-ग्रंथो की रचना हुयी। इन लेखकों ने अर्धमागधी आगमों के आधार पर अपनी रचना-कृतियों का प्रारम्भ किया। ये लेखक संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं के प्रकाण्ड विद्धान् थे। इन विद्वानों ने अपनी साहित्यिक कृतियों में व्याकरण, अलंकार, छंद और ज्योतिष शास्त्र को लिखकर साहित्य को समृद्ध बनाने में योगदान किया। जैन विद्धान अपने भ्रमण काल में जहां भी जाते थे, उस स्थान की जीवन-प्रणाली, भाषा तथा प्रचलित रीति-रस्मों का अवलोकन कर अपनी रचनाओं में स्थान देते थे। गुप्तकाल में संस्कृत के पुनरूत्थान होने पर प्राकृत के अध्ययन में गिरावट आने लगी एवं संस्कृत के उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना हुयी। धर्मशास्त्र, पुराण, व्याकरण, काव्य, वैद्यक, नाटक, ज्योतिष और अन्य विषयों पर संस्कृत में साहित्यिक कृतियों की रचनायें हुयीं। सिद्धर्षि ने 905 ई. में उपमितिभव प्रपंच कथा, धनपाल ने तिलक मंजरी और हरिषेण ने बृहत्कथा कोष जैसे साहित्यिक-कृतियों की रचना संस्कृत में किया है। इस काल में, सिद्धर्षि के अनुसार अभिव्यक्ति की दो मुख्य भाषायें संस्कृत एवं प्राकृत है। इनमें संस्कृत दुर्विदग्धों के मन में स्थित है। उन्हें अज्ञजनों को सदबोध करने वाली कानों को मधुर लगने वाली प्राकृत भाषा अच्छी नहीं लगती। तथा उपायान्तर रहने पर सबका मनोरंजन करना चाहिये, अतएव ऐसे लोगों के अनुरोध से यह रचना संस्कृत में लिखी जाती है। “अतस्तद नुरो येन संस्कृतेयं करिष्यते"27 । प्राकृत से ही विभिन्न क्षेत्रीय अपभ्रंशो का विकास हुआ एवं दसवीं शताब्दी के लगभग अपभ्रंश में साहित्यिक रचनाओं का क्रम प्रारम्भ हुआ। इन रचनाओं में विभिन्न देश एवं काल में प्रचलित देशी भाषा, मुख्यत:, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि लोक भाषाओं के शब्दों का सम्मिश्रण पाया जाता है। जैन कथा सहित्य की महत्ता के वल संस्कृत एवं अन्य भारतीय ( 12 )
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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