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________________ 'प्रमाण, प्रमेय, संयम, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव तक निर्णय वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, और निग्रहस्थान, इनके तत्वज्ञान से मामला है और प्रमाण आदि पदार्थ उस तत्व ज्ञान के साधन हैं। यर्थात ज्ञान का साधन प्रमाण है, जानने वाला प्रमाता, ज्ञान प्रमिति और जिस वस्तु को जानता है वह प्रमेय कहलाती है। न्याय दर्शन के अनुसार चार मुख्य प्रमाण हैं- 1 प्रत्यक्ष, 2 अनुमान, 3 उपमान 4 आगम । 1 प्रत्यक्ष प्रमाण-इंन्द्रियों और जर्थ के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ अशब्द (नाममात्र से न कहा हुआ), अव्यभिचारी ( न बदलने वाला) और निश्चयात्मक हो, वह प्रत्यक्ष प्रमाण है। __ प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-निर्विकल्पक और सविकल्प। वस्तु का आलोचनमात्र ज्ञान, जिसमें सम्बन्ध की प्रतीति नहीं होती है, निर्विकल्प है; और जिसमें सम्बन्ध की प्रतीति होती है, वह सविकल्प है। निर्विकल्प पहले होता है और सविकल्प पीछे। जैसे गौको देखकर 'गौ' यह ज्ञान पहले-पहल नहीं होता; क्योंकि 'गौ' इस ज्ञान में केवल व्यक्ति का ज्ञान नही, किंतु एक विशेष व्यक्ति, एक विशेष जाति (गोत्व) से सम्बन्ध रखने वाली प्रतीत हो रही है। इस सम्बन्ध का ज्ञान सम्बन्धियों को पहले-पहल अलग जाने बिना नहीं होता क्यों कि 'गो' इस ज्ञान में केवल व्यक्ति का ज्ञान नहीं, किंतु एक विशेष व्यक्ति, एक विशेष जाति (गोत्व) से सम्बन्ध रखने वाली प्रतीत हो रही है। इससे अनुमान होता है कि पहले दोनों सम्बन्धियों (जाति, व्यक्ति) का सम्बन्ध रहित ज्ञान अलग-अलग हुआ है, पीछे ‘यह गौ है' यह ज्ञान हुआ है। इनमें से पहला निर्विकल्प है; पीछे जो सम्बन्ध को प्रकट करने वाला ज्ञान हुआ है, वह सविकल्प है। निर्विकल्पक कहने में नही आता है। 2. अनुमान प्रमाण–साधन-साध्य, लिगं लिगीं अथवा कार्य कारण के सम्बन्ध से जो ज्ञान उत्पन्न हो, उसे अनुमान कहते हैं। जहाँ 'व्याप्ति' अर्थात साहचर्य (साथ रहने) का नियम ( 156)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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