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________________ स्वरूप अथवा लक्षण में कोई नहीं है, केवल कहने मात्र के लिए एकत्व और बहुत्व में भेद है। जाति से अभिप्राय सत्तमात्र ज्ञानस्वरूप मानने में कोई दोष नहीं आता है। मीमांसा दर्शन:-जैन कथा साहित्य में मीमांसा दर्शन को पढ़ये जाने की पुष्टि होती है। एक मठ के व्याख्यानकक्ष में 'प्रत्यक्ष, अनुमान आदि छ: प्रमाणों से निरुपित जीव आदि को नित्य मानने वाले, तथा वाक्य पद एवं शब्द-प्रमाण को स्वीकारने वाले मीमांसाको का दर्शन पढाया जा रहा था।417 आठवीं शताब्दी में पूर्व एवं उत्तर मीमांसा के दिग्गज विद्वान उपस्थित थे, जिन्होंने अन्य भारतीय दर्शनों को भी प्रभावित किया था। प्रभाकर, कुमारिल भट्ट एवं शंकराचार्य उनमें प्रमुख थे। उपर्युक्त सिद्धान्त इनमें से किससे अधिक सम्बन्धित थे इस पर विचार किया जा सकता है। उपयुक्त सन्दर्भ में छ: प्रमाणों की बात कही गयी हैं। मीमांसा के भट्ट तथा प्रभाकर सम्प्रदायों में से सम्प्रदाय ही छ. प्रमाणों को मानता है। प्रभागर केवल पाँच प्रमाण मानते हैं। अत: इस आधार पर कहा जा सकता है क कुमारिल के ग्रन्थ का अध्ययन इस मठ में कराया जा रहा था। इसका एक सहायक प्रमाण यह भी है कि उक्त सन्दर्भ में 'सर्वज्ञ नहीं है', इस सिद्धान्त का भी प्रतिपादन हुआ है। सर्वज्ञ की नास्तिकता का स्पष्ट उल्लेख कुमारिल ने ही किया है।418 जीव को नित्य मानना मीमांसा को का सामान्य सिद्धान्त है।19 वेदान्तः-कुवलयमाला में अद्वैतवादियों का वर्णन हैं “अचेतन पर्दार्थो में स्वयं गतिशील, नित्य-अनित्य से रहित, अनादिनिधन एक ही परमात्मा है, जो परम पुरूष है ।420 यह एकात्मवादियों का सिद्धान्त था। राजा इसे यह कर अस्वीकार कर देता है कि यदि एक ही आत्मा होता तो सुख-दुःख, अनेक रूप आदि का व्यवहार नहीं होता तथा एक के दुःखी होने से सभी दुःखी होंगें+21 । भारतीय दर्शन में एकात्मवादियों का यह सिद्धान्त आत्माद्वैतवाद के नाम से जाना जाता है। उपनिषदों में ‘एकोदेव: सर्वभुतेषुगूढ:422 एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म 23, आदि वाक्यों से ( 144 )
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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