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________________ दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागतः । कश्चिदर्थमभिप्रेत्य सा संख्येत्युपधार्यताम् ॥406 "संख्या का अर्थ आत्मा के विशुद्ध रूप का ज्ञान भी किया गया है यथा शुद्धात्मतच्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते ।406 सांख्य के प्रर्वतक श्री कपिल मुनि हैं और योग दर्शन के निर्माता श्री पतंजलि मुनि कपिलमुनि आदि विद्धान और प्रथम दार्शनिक हैं । यथा - सिद्धानां कपिलो मुनि: 1408 सिद्धों में कपिल मुनि हूँ । ऋषिप्रसूतं कपिलं यस्तमयं ज्ञानैर्विभर्ति | 409) जो पहले उत्पन्न हुए कपिल मुनि का ज्ञान से भर देता है तथा आदिविद्वान् निर्माणचित्तमधिष्ठाय कारूण्याद भगवान् परमर्षिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाच 1410 आदिविद्वान (प्रथम दार्शनिक) भगवान परमऋषि (कपिल) ने निर्माणचित्त (संसारिक संस्कारों से शून्य) के अधिष्ठाता होकर जिज्ञासा करते हुए आसुरि को दयाभाव से (सांख्य) शास्त्र का उपदेश दिया । सर्गादावादिविद्वानत्र भगवान् कपिलो महामुनिर्धर्मज्ञान वैराग्यैश्रवर्यसम्पन्नः प्रादुर्वभूव /411 सृष्टि के आदि में आदि विद्वान् पूजनीय महामुनि कपिल धर्म-ज्ञान-वैराग्य और ऐश्वर्य से सम्पन्न प्रकट हुए। सांख्य के मुख्य ग्रन्थ- (1) परम ऋषि कपिल मुनिप्रणीत 'तत्वसमास' ( 2 ) पंचाशिखाचार्य के सूत्र (3) वार्षगण्याचार्य प्रणीत पष्टि - तन्त्र (4) सांख्यसप्तति ( 5 ) सांख्यसूत्र ( 140 )
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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