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________________ ५२ ': जन धर्म को उदारता. माना गया है, पूज्य माना गया है और गणधरादि द्वारा प्रशनीय कहा गया है। यथा सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगुढ़ागारान्तरौजसम् ॥२८॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार । शुद्रों की तो बात ही क्या है जैन शास्त्रों में महा न्लेच्छों तक को मुनि होने का अधिकार दिया गया। जो मुनि हो सकता है उसके फिर कौन से अधिकार बाकी रह सकते हैं ? लन्धिसार में म्लेच्छ को भी मुनि होने का विधान इस प्रकार किया है तत्तो पडिवजगया अञ्जमिलेच्छे मिलेच्छ अज्जय।। कमसो अवरं अवरं वरं वरं होदि संखं वा ॥१३॥ अर्थ-प्रतिपादा स्थानों में से प्रथम आर्यखण्ड का मनुष्य मिथ्यावष्टि से संयमो हुआ, उसके जघन्य स्थान है । उसके बाद असंख्यात लोक मान षट् स्थान के ऊपर म्लेच्छ खण्ड का मनुष्य मिथ्यादृष्टि से सकल सयमी (मुनि) हुआ, उसका जघन्य स्थान है। उसके ऊपर म्लेच्छ खण्ड का मनुष्य देश, संयत से सकल संयमी हुआ, उसका उत्कृष्ट स्थान है । उसके बाद आर्य खण्ड का मनुष्य देश संयत से सकल संयमी हुआ उसका उत्कृष्ट स्थान है। लब्धिसार की इसी १६३ वी गाथा की संस्कृत टीका इस प्रकार है "म्लेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाशंकितव्यं । दिग्विजयकाले चक्रवर्तिनां सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजानां चक्रवर्त्यादिभिः सह जातवैवाहिक संबंधानां संयमप्रतिपत्तरविरोधात् । अथवा चक्र
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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