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________________ ४४ जैनधर्म की उदारता ७-परस्त्री सेवीका मुनिदान राजा सुमुख वीरक सेठ की पत्नी बनमाला पर मुग्ध होगया। और उसे दूतियों के द्वारा अपने महलों में बुला लिया तथा उसे घर नहीं जाने दिया और अपनी स्त्री बना कर उससे प्रगाढ़ काम सेवन करने लगा। एकदिन राजा सुमुख के मकान पर महामुनि पधारे। वे सब जानने वाले विशुद्ध ज्ञानी थे, फिर भी राजा के यहां आहार लिया। राजा सुमुख और वनमाला दोनों (विनैकावार या दस्साओं) ने मिलकर आहार दिया और पुण्य संचय किया। इसके बाद भी वे दोनों काम सेवन करते रहे । एक समय विजली गिरने से वे मर कर विद्याधर विद्याधरी हुए। इन्हीं दोनों से 'हरि' नामक पुत्र हुआ जिससे 'हरिवंश' की उत्पत्ति हुई। (देखो हरिवंश पुराण सर्ग१४ श्लोक ४७ से सर्ग १५ श्लोक १३ तक) __ कहां तो यह उदारता कि ऐसे व्यभिचारी लोग भी मुनिदान देकर पुण्य संचय कर सके और कहां आज तनिक से लांछन से पतित किया हुआ जैन दस्सा-विनका या जातिच्युत होकर जिनेन्द्र के दर्शनों को भी तरसता है। खेद ! ८-वेश्या और वेश्या सेवी को उद्धार- हरिवंशपुराण के गर्ग २१ में चारुदत्त और बसन्तसेना का बहुत ही उदारतापूर्ण जीवन चरित्र है । उसका कुछ भाग श्लोकों को न लिख कर उनकी संख् । सहित यहां दिया जाता है । चारुदत्त ने बाल्यावस्था में ही अणुव्रत लेलिये थे (२१-१२) फिर भी चारुदत्त काका के साथ बसन्तसेना वेश्या के यहां माता की प्रेरणा से पहुंचाया गया (२१-४०) वसन्तसेना वेश्या की माता ने चारुदत्त के हाथ में अपनी पुत्री का हाथ पकड़ा दिया (२१-५८) फिर वे दोनों मजे से संभोग करते रहे । अन्त में वसन्तसेना की माता ने चारुदत्त को घर से
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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