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________________ ३६ .. . जैनधर्म की उदारता देखिये तोमालूमहोगा कि उनमें कैसे कैसे पापी, हिंसक दुराचारी. और हत्यारे मनुष्यों तक को दण्ड देकर पुनः स्थितिकरण करने ... का विधान किया गया है। इस विपयमें विशेष न लिखकर मात्र दो श्लोक ही दिये जाते हैं जिनसे आप प्रायश्चित शास्त्रों की उदारता, का अनुमान लगा सकेंगे। यथा साधूपासकवालस्त्रीधेनूनां घातने क्रमात् । यावद् द्वादशमासाः स्यात् षष्ठमर्धार्धहानियुक्॥ -प्रायश्चित्तं समुजय ।।.. अर्थात-साधु उपासक, चालक, स्त्री और गाय के बंध(हत्या).. का प्रायश्चित्त क्रमशः आधी आधी हानि सहित बारह मास तक: पाठोपवास (वेला) है। इसका मतलब यह है कि साधु का घात करने वाला व्यक्ति १२ माह तक एकान्तरे से उपवास करे, और इसके आगे. उपवास वालक, स्त्री और गाय की हत्या में आधे आधे करे । पुनश्च तृणमांसात्पतत्सर्प परिसर्प जलौकसां। .... चतुर्दर्शनवाद्यन्तक्षमणा निवधे छिदा ।।प्रा० ०॥ अर्थात्-मृग आदि तृणचर जीवों के घात का '१४ उपवास, सिंह आदि मांस भक्षियों के घात का १३ उपवास, मयूरादि पत्तियों : के घात का १२ उपवास, सादि के मारने का ११ उपवास, सरट : आदि परिसॉं के घात का १० उपवास और मत्स्यादि जलचर: जीवों के घात का E उपवास प्रायश्चित बताया गया है। नोट-विशेष प्रमाण परिशिष्ठ भाग में देखिये। . " . ... ... . इतने मान से मालूम हो जायगा कि जैनधर्म में उदारता है,... प्रेम है, उद्धारकपना है, और कल्याणकारित्व है। एक बार गिरा हुआ व्यक्ति उठाया जा सकता है, पापी भी निष्पापं बनाया जा..
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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