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________________ .............wimminawwamrom पतितां का उद्धार है तब उसे फिरसे यज्ञोपवीतादि लेने का अधिकार हो जाता है। यदि उसके पूर्वज दीक्षा योग्य कुल में उत्पन्न हुवे हो तो उसके पुत्र पौत्रादि सन्तानको यज्ञोपवीतादि लेनेका कहीं भी निपेध नहीं है। : तात्पर्य यह है कि किसी की भी सन्तान दूपित नहीं कही जा सकती, इतना ही नहीं किन्तु प्रत्येक दूपित व्यक्ति शुद्ध होकर दीक्षा योग्य होजाता है। ___ एक बार इटावा में दिगम्बर आचार्य श्री सूर्यसागर जी महाराज ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि-"जीव मात्र को जिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति करने का अधिकार है । जब कि मैंढक जैसे तिर्यंच पूजा कर सकते हैं तव मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ! याद रखो कि धर्म किसी की वपोती जायदाद नहीं हैं, जैनधर्म तो प्राणी मात्र का धर्म है, पतित पावन है। चीतराग भगवान पूर्ण पवित्र होते है, कोई त्रिकाल में भी उन्हें अपवित्र नहीं बना सकता। कैसा भी कोई पापी या अपराधी हो उसे कड़ी से कड़ी सजा दो परन्तु धर्मस्थान का द्वार बन्द मत करो। यदि धर्मस्थान ही बन्द होगया तो उसका उद्धार कैसे होगा? ऐसे परम पवित्र-पतित पावन धर्म को पाकर तुम लोगों ने उसकी कैसी दुर्गति करडाली है शास्त्रों में तो पतितों को पावन करनेवाले अनेक उदाहरण मिलते हैं, फिर भी पता नहीं कि जैनधर्म के ज्ञाता बनने वाले कुछ जैन विद्वान उसका विरोध क्यों करते हैं? परम पवित्र,पतित पावन और उदार जैनधर्म के विद्वान संकीर्णता का समर्थन करें यह बड़े ही आश्चर्य की बात है । कहां तो हमारा धर्म पतितों को पावन करने वाला है आर कहां आज लोग पतितों के संसर्ग से धर्म को भी पतित हुआ मानने लगे हैं। यह बड़े खेद का विषय है !"
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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