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________________ — जैनधर्स की उदारता महापापप्रकर्ताऽपि प्राणी श्रीजैनधर्मतः । भवेत् त्रैलोक्यसंपूज्यो धर्मास्कि भी परं शुभम् ॥ अर्थात्-घोर पाप को करने वाला प्राणी भी जैन धर्म धारण करने से त्रैलोक्य पूज्य हो सकता है। जैनधर्म की उदारता इसी बात से स्पष्ट है कि इसको मनुष्य, देव, तिर्यञ्च और नारकी सभी धारण करके अपना कल्याण कर सकते हैं। जैनधर्म पाप का विरोधी है पापी का नहीं । यदि वह पापी का भी विरोध करने लगे, उनसे घृणा करने लग जावे तो फिर कोई भी अधम पर्याय वाला उच्च पर्याय को नहीं पा सकेगा और शुभाशुभ कर्मों की तमाम व्यवस्था ही बिगड़ जायगी। जैन शास्त्रों में धर्मधारण करने का ठेका अमुक वर्ण या जाति को नहीं दिया गया है किन्तु मन वचन काय से सभी प्राणी धर्म धारण करने के अधिकारी बताये गये हैं। यथा"मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः" -श्री सोमदेवसूरिः। ऐसी ऐसी आज्ञायें, प्रमाण और उपदेश जैन शास्त्रों में भरे । पड़े हैं। फिर भी संकुचित दृष्टि वाले जाति मद में मत्त होकर इन वातों की परवाह न करके अपने को ही सर्वोच्च समझ कर दूसरों के कल्याण में जबरदस्त वाधा डाला करते हैं। ऐसे व्यक्ति जैन धर्म की उदारता को नष्ट करके स्वयं तो पाप बन्ध करते ही हैं साथ ही पतितों के उद्धार में अवनतों की उन्नति में और पदच्युतों के उत्थान में बाधक होकर घोर अत्याचार करते हैं। उनको मात्र भय इतना ही रहता है कि यदि नीच कहलाने वाला व्यक्ति भी जैनधर्म धारण कर लेगा तो फिर हम में और उसमें क्या भेद रहेगा ! मगर उन्हें इतना ज्ञान नहीं है कि भेद
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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