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________________ पापियों का उद्धार १३ अर्थात- उस यमपाल चाण्डाल को व्रत के महात्म्य से तथा धर्मानुराग से देवों ने सिंहासन पर विराजमान करके उसका अच्छे जल से अभिषेक किया और अनेक वस तथा आभूषणों से सम्मान किया । इतना ही नहीं किन्तु राजा ने भी उस चाण्डाल के प्रति नत्रीभूत हो कर उस से क्षमा याचना की थी तथा स्वयं भी उसकी पूजा की थी । यथा 1 तं प्रभावं समालोक्य राजाद्यैः परया मुदा । अभ्यर्चितः स मातंगो यमपालो गुणोज्वलः ॥ २८ ॥ अर्थात् - उस चाण्डाल के व्रत प्रभाव को देख कर राजा तथा प्रजा ने बड़े ही हर्ष के साथ गुणों से समुज्वल उस यमपाल चाण्डाल की पूजा की थी । देखिये यह कितनी आदर्श उदारता है । गुणों के सामने न तो हीन जाति का विचार हुआ और न उसकी अस्पृश्यता ही देखी गई । मात्र एक चाण्डाल के दृढ़वती होने के कारण ही उस का अभिषेक और पूजन तक किया गया। यह है जैनधर्म की सच्ची उदारता का एक नमूना ! इसी प्रकरण में जाति मद न करने की शिक्षा देते हुये स्पष्ट लिखा है कि- चाण्डालोऽपि ब्रतोपेतः पूजितः देवतादिभिः । तस्मादन्यैर्न विप्राद्यैर्जातिगर्वो विधीयते ॥ ३० ॥ अर्थात - व्रतों से युक्त चाण्डाल भी देवों द्वारा पूजा गया इस लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को अपनी जाति का गर्व नहीं करना चाहिये । यहां पर जातिमद का कैसा सुन्दर निराकरण किया गया है !
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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