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________________ श्वेताम्बर जैन शात्रों में उदारता के प्रमाण विजातीय (मोढ जाति में ) विवाह किया था। फिर भी उनने सन् १२२० में गिरनार का संघ निकाला । उसमें २१ हजार श्वेताम्बर और ३०० दिगम्बर जैन साथ थे। उसके बाद सन् १२३० में उनने आबू के जगविख्यात मन्दिर बनवाये । क्या आज जैन समाज में इस उदारता का अंश भी बाकी है ? आज तो दस्साओं को पूजा से भी रोका जाता है ! . (१५) जाति के विषय में स्पष्ट कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र आदि का व्यवहार कर्मगत (आचरण से) है । ब्राह्मणत्वादि जन्म से नहीं होता। यथा कम्मुणा बम्मणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो। वइसो कम्मुणा होइ, सुदो हवा कम्मुणा ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र अ० २५ (१६) जैनधर्म में जाति को प्रधान नहीं माना है। इसी विषय में मुनि श्री 'सन्तवाल' जी ने उत्तराध्ययन की टीका में १२वें अध्याय के प्रारम्भ में विवेचन करते हुये लिखा है कि:___"आत्मविकाश में जाति वन्धन नहीं होते हैं। चाण्डाल भी आत्मकल्याण के मार्ग पर चल सकता है । चाण्डाल जाति में उत्पन्न होने वाले का भी हृदय पवित्र हो सकता है। हरिकेश मुनि चाण्डाल कुलोत्पन होकर भी गुणों के भण्डार थे। नरेन्द्र देवेन्द्र और महा पुरुषों ने उनकी बन्दना की थी। वर्ण व्यवस्था कर्मानुसार होती है। उसमें नीच ऊंच के भेदों को स्थान नहीं है । भगवान महावीर ने जातिवाद का खण्डन करके गुणवाद का प्रसार किया था। अभेद भाव का अमृतपान कराया और दीन हीन पतित जीवों का उद्धार किया था।" प्रत्यक्ष में जातिगत कोई विशेषता मालम नहीं होती किन्तु
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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