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________________ जैनाचायाँका शासनभेदं विवक्षित्वाल्लक्ष्यते । दिग्नत संक्षेपकरणं चात्रां (न्य ) गुणत्रतादिसंक्षेपकरणस्याप्युपलक्षणं द्रष्टव्यं । एषामपि संक्षेपस्यावश्यकर्तव्यत्वात्प्रतित्रतं च संक्षेपकरणस्य मिन्नत्रतत्वे गुणाः स्युर्द्वादशेति संख्याविरोधः स्यात् ।” पं० आशाधरजीके इन वाक्योंसे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। कि उमास्त्रांतिका शासन, चाहे वह किसी भी विवक्षासे* क्यों न हो, इस विषय में समन्तभद्रके शासनसे और उन श्वेताम्बर आचार्योंके शासनसे विभिन्न है जिन्होंने 'देशावकाशिक' को शिक्षात्रत प्रतिपादन किया है । ५२ ( ४ ) स्वामिकार्तिकेयने, अपने 'अनुपेक्षा' ग्रन्यमें देशाव काशिकको चौथा शिक्षाव्रत प्रतिपादन किया है । अर्थात्, शिक्षानतोंमें उसे पहला दर्जा न देकर अन्तका दर्जा प्रदान किया है । साथ ही, उसके स्वरूपमें दिशाओं के परिमाणको संकोचनेके साथ साथ 'इन्द्रियोंके विषयोंको अर्थात् भोगोपभोगके परिमाणको भी संकोचनेका विधान किया है। यथा: पुव्त्रपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणोवि संवरणं । इन्द्रियविसयाण तहा पुणोवि जो कुणदि संवरणं ॥ ३६७ ॥ वासादिकयपमाणं दिदिणे लोहकामसमणत्थं । . सावज्जवज्जणहं तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ ३६८ ॥ 3 * पं० आशाधरजीने जिस विवक्षाका उल्लेख किया है उसके अनुसार 'देशव्रत' गुणत्रत हो सकता है और उसका नियम भी यावन्नीवके लिये किया जा सकता है। इसी तरह भोगोपभोगपरिमाण यावज्जीविक भी होता है, ऐसा न मानकर यदि उसे नियतकालिकं ही माना जावे तो इस विवक्षासे वह शिक्षात्रतोंमें भी जा सकता है । विवक्षासे केवल विरोधका परिहार होता है । परंतु शासनभेद और भी अधिकता के साथ दृढ तथा स्पष्ट हो जाता है ।
SR No.010258
Book TitleJain Acharyo ka Shasan Bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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