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________________ था। तत्रायमाश्य शिक्षावताना सत्रकारण, जैनाचार्योंका शासनभेद (उमास्वाति) ने उसके विरुद्ध भिन्नक्रम किस लिये रक्खा है। अर्थात् 'दिग्विरत्यादि गुणवतोंका कथन पूरा किये बिना ही बीचमें 'देशविरति' नामके शिक्षाव्रतका उपदेश क्यों दिया है ? और फिर आगे स्वयं ही इस क्रमभंगके आरोपका समाधान किया है । यथाः "संप्रति क्रमनिर्दिष्ट देशव्रतमुच्यते । अत्राह वक्ष्यति भगवान् देशव्रतं । परमार्पप्रवचनक्रमः कैमोद्भिन्नः सूत्रकारेण । आर्षे तु गुणवतानि क्रमेणादिश्य शिक्षात्रतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण' त्वन्यथा। तत्रायमभिप्रायः पूर्वतो योजनशतपरिमितं गमनमभिगृहीतं न चास्ति संभवो यत्प्रतिदिवसं तावती दिगवगाह्याऽतस्तदनंतरमेवोपदिष्टं देशव्रतमिति । देशे भागेऽवस्थापन प्रतिप्रदिनं प्रतिप्रहरं प्रतिक्षणमिति सुखावबोधार्थमन्यथाक्रमः।" इस अवतरणमें क्रमभंगके आरोपका जो समाधान किया गया है और उसका जो अभिप्राय बतलाया गया है, वह इस प्रकार है: 'पहलेसे सौ योजन गमनका परिमाण ग्रहण किया था, परंतु यह • संभव नहीं कि प्रति दिन इतने परिमाणमें दिशाओंका अवगाहन हो सके इस लिये उसके ( दिग्वतके ) बाद ही देशवतका उपदेश दिया गया है। इस तरह. सुखसे समझमें आनेके लिये ( सुखावबोधार्थ ) सूत्रकारने यह भिन्नक्रम रक्खा है।' जो विद्वान निष्पक्ष विचारक हैं उन्हें ऊपरके इन समाधानवाक्योंसे कुछ भी संतोष नहीं हो सकता । वास्तवमें इनके द्वारा आरोपका कुछ भी समाधान नहीं हो सका। देशवतको दिव्रतके अनन्तर रखनेसे वह भले प्रकार समझमें आ जाता है, वादको रखनेसे वह समझमें न आता या कठिनतासे समझमें आता, ऐसा कुछ भी नहीं है। और
SR No.010258
Book TitleJain Acharyo ka Shasan Bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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