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________________ जैनाचार्योंका शासनभेद निर्मला धारणीयाः।' अर्थात् सबसे पहले ये निर्मल गुण धारण करने चाहिये। इस 'रात्रिभोजन-त्याग के विषयमें आचार्योंका बहुत कुछ मत-भेद है, जिसका कुछ दिग्दर्शन आगेके पृष्ठोंमें कराया जायगा और इस लिये यहाँपर उसको छोड़ा जाता है। यहाँ सिर्फ इतना ही समझना चाहिये कि इन आचार्य महाशयका शासन इस विष-यमें, दूसरे आचार्योंके शासनसे भिन्न है। (५) पं० आशाधरजीने, अपने 'सागारधर्मामृत' में, यद्यपि उन्हीं 'अष्ट मूलगुणोंका 'स्वमत' रूपसे उल्लेख किया है जिनका सोमदेव आचार्यने प्रतिपादन किया है, और साथ ही समन्तभद्र तथा जिनसेना-चार्योंके मतोंको 'परमत' रूपसे सूचित किया है, तो भी उनका इस "विषयमें कोई निश्चित एकमत मालूम नहीं होता । उन्होंने प्रायः सभीको अपनाया और सभीपर अपना हाथ रक्खा है । वे उपर्युक्त (स्वमतरूपसे प्रतिपादित) मूलगुणोंके नाम और उनकी संख्याका निर्देश करते हुए भी टीकामें लिखते हैं कि 'च' शब्दसे नवनीत, रात्रिभोजन, अगालित जल आदिका भी त्याग करना चाहिये और इससे उक्त ' अष्ट' की संख्यामें बाधा आती है, इसकी कुछ पर्वाह नहीं करते। परन्तु कुछ भी सही, पं० आशाधरजीने, अपने उक्त प्रथमें, किसी शास्त्रके आधारपर, जिसका नाम नहीं दिया, एक दूसरे प्रकारके मूलगुणोंका भी उल्लेख किया है जिन्हें मैं यहाँपर उद्धृत करता हूँ: मद्यपलमधुनिशासनपंचफलीविरतिपंचकाप्सनुती। जीवदयाजलगालनमिति च कचिदष्टमूलगुणाः ॥२-१८ ॥ मालूम नहीं मूल गुणोंका यह कथन कौनसे आचार्यके मतानुसार लिखा गया है और उनका अथवां उनके ग्रंथका नाम, समंतभद्रादिके
SR No.010258
Book TitleJain Acharyo ka Shasan Bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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