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________________ चौथा अंक परिचारिका : जो आज्ञा । (प्रस्थान) वर्धमान : सम्पत्ति का यह स्वभाव है कि जितना ही उसका तिरस्कार करो, वह उतनी ही पास आती है। यशोदा : और मेरे पूज्य पिता जी ही नहीं, उनही दी हुई वस्तु भी आपसे इतना प्रेम करती है कि वे आपका माथ नहीं छोड़ना चाहती। वधमान : किन्नु माथ छूटना नो मंमार का नियम है। (सैनिक वेश में दंडाधिकारी और एक सामान्य स्त्री का प्रवेश) दंडाधिकारी : (सिर मुका कर) स्वामी की जय ! स्वामिनी की जय ! निवेदन है कि में प्रातः सरोज मरोवर की मुरक्षा के लिए वहां पहुंचा। देखा कि यह स्त्री स्नान कर छिपने हा भागने का प्रयत्न कर रही है। जब मैंने इसे रोक कर उसके वस्त्रों की जांच की तो उसके पाम में यह रत्नहार प्राप्त हुआ । एक बार मैंने इम गन्नहार को स्वामी के कंठ में देखा था। मैंने अनमान किया कि स्वामी म्नान करने के लिए मगंज मगेवर गये हो और वहां यह रत्नहार उठाना भल गये हों । यह स्त्री इमे चरा कर भाग रही थी। मैंने मे बन्दी बना लिया । यह आपकी मेवा में उपस्थित है। यह रत्नहार है। (सामने को पोठिका पर रत्नहार रखता है। अब आपकी जमी आजा हो ! यशोदा : स्वामी का ही यह गन्नहार है। वर्षमान : हो. यह वहीं गन्नहार है। दंडाधिकारी : नब नो इम स्त्री ने निश्चय ही चोरी की है। वर्धमान : (बंकिम मोह करते हुए) चार्ग? तुमने चोरी की है, भद्रे ? स्त्री : (सिसकते हुए) में निग्पगध हूँ, म्वामी !
SR No.010256
Book TitleJay Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamkumar Varma
PublisherBharatiya Sahitya Prakashan
Publication Year1974
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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