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________________ जय वर्धमान वर्धमान : और मैंने भी तो उनमे प्रार्थना की थी कि अपने समान मुझे भी मुक्त बना देना। मैं कल्याणकारी धर्म का अभ्यास करूं, जिससे मेरा पुनर्जन्म न हो। यशोदा : तो समय आने पर आपकी भी प्रार्थना सुनी जायगी। वर्धमान : मैं तो अभी से मुक्त होना चाहता हूँ, यशोदा ! संसार में जितनी वस्तुएँ बन्धन में डालने वाली हैं, उनसे मुक्ति चाहता हूँ। यशोदा : मैं आपको बन्धन में नहीं डालूंगी, देव ! वर्धमान : यह तो मेरा मन ही जानता है कि बन्धन क्या है और उसमे किम प्रकार मुक्ति मिलेगी। इस संसार में सम्पत्ति और सौन्दर्य सब से बड़े बन्धन हैं। यशोदा : और मैं ममझती हूँ कि बन्धन ही मुक्ति के साधन हैं । जिस प्रकार एक शक्तिशाली पुरुष कील से पीट कर कील को निकालता है, उसी प्रकार एक कुशल पुरुष इन्द्रियों के द्वारा ही इन्द्रियों का दमन करता है । वर्धमान : यह तो तुम तन्व की बात कहती हो, यशोदा ! किन्तु मैंने अभी से बन्धन से मुक्त होना आरम्भ कर दिया है। यशोदा : किस प्रकार, स्वामी ? वर्धमान : तुम बुरा तो नहीं मानोगी, यशोदा ? यशोदा : नहीं, प्रियतम ! आप जिस कार्य को करेंगे. उससे तो मुझे प्रसन्नता ही होगी। बुरा मानने की बात ही क्या है ? वर्धमान : तो सुनो ! विवाह के अवसर पर तुम्हारे पिता जी ने जो आकर्षक और बहुत बड़े मूल्य का रत्नहार भेंट किया था, उसका मैने विमजन कर दिया। ८२
SR No.010256
Book TitleJay Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamkumar Varma
PublisherBharatiya Sahitya Prakashan
Publication Year1974
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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