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________________ जय वर्धमान यशोदा : देवता के अभिनन्दन में जलना भी सौभाग्य की बात है। वर्धमान : अभिनन्दन चाहे जैसा हो किन्तु उस जलने में धीरे-धीरे स्नेह भी कम हो जाता है और जब स्नेह समाप्त हो जाता है यह अभिनन्दन की आरती भी बुझ जाती है। यशोदा : मुझे विश्वास है, स्वामी ! यह स्नेह कभी कम न होगा और जिस स्नेह की स्वीकृति मेरी उपासना से हुई है वह तो अटल ध्रुव नक्षत्र की भांति जगमगाता रहेगा और सुख के सप्त ऋषि उसकी परिक्रमा करते रहेंगे। वर्धमान : किन्तु ध्रुव नक्षत्र तो बिना किसी इच्छा के आकाश में स्थिर है, यशोदा! यशोदा : यह कौन जानता है कि किसके मन में क्या इच्छा है ! मैं तो अपनी इच्छा जानती हूँ-जीवन भर आपकी सेवा करना। वर्धमान : और यदि मैं तुमसे सेवा न लेना चाहूं तो? यशोदा : आराध्य कब सेवा लेना चाहता है, यह तो उपामक ही है जो सेवा में सुख मानता है। इधर देखिए, (वातायन की ओर ले जाती है ।) यह कितना सुन्दर सरोवर है ! प्रभात-किरणों में ये कमल कितने सुहावने लगते हैं ! भौंरे गंज-गंज कर जैसे उनकी विरुदावलियां गा रहे हैं। कमल को क्या चिन्ता कि भौंरे उसके पास आते हैं या नहीं। ये भ्रमर ही हैं जो कमल की उपासना करने के लिए न जाने कहाँ कहाँ से आ जाते हैं। वर्धमान : ये रस के लोभी हैं, यशोदा ! कमल-कोश में प्रवेश कर रस-पान करते हैं और संध्या होने पर कभी कभी कमल में बन्दी भी हो जाते हैं। यसोदा : किन्तु वे मुक्त होने के लिए कमल का कोश काटते नहीं हैं, प्रभु !
SR No.010256
Book TitleJay Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamkumar Varma
PublisherBharatiya Sahitya Prakashan
Publication Year1974
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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