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________________ दूसरा अंक सिद्धार्थ : (स्वगत) धन्य ! धन्य कुमार वर्धमान ! नहीं (जोर देकर) महावीर वर्धमान ! मैं तुम्हारा पिता होकर अपना महान् भाग्य समझता हूँ। (प्रम पावनाप के चित्र के समीप जाकर) प्रभु पार्श्वनाथ ! तुम्हारी इतनी कृपा मुझ पर है कि मैं महावीर वर्धमान का पिता बनूं । कहाँ ऐरावत की भांति शक्तिशाली इन्द्रगज और कहाँ कुमार वर्धमान ! किन्तु कुमार ने इन्द्रगज को वश में कर लिया । और वह भयानक सर्प ! उसे फूल की माला की भांति उठा कर दूर फेंक दिया। (सिर मुकाकर) प्रभु पार्श्वनाथ ! यह सब तुम्हारी कृपा है। (हाय बोड़ते हैं।) (महारानी विराला का मागमन ।) विशला : महाराज की जय ! सिद्धार्थ : (उल्लास से) ओ, त्रिशला ! सुनो, सुनो तुम्हारे वर्धमान ने... तुम्हारे कुमार ने किस साहस के साथ इन्द्रगज को वश में किया ... हाँ, इन्द्रगज को और सर्प को "भयंकर सर्प को इस वेग से ऊपर फेंका कि वह आकाश "हाँ, आकाश में ही रह गया ।'"तुम्हारे वर्धमान तुम्हारे कुमार...." विशला : हाँ, महाराज ! मैंने अभी-अभी यह समाचार सुना। परन्तु कुमार हैं कहाँ ? सोचती थी कहीं आपके पास न हों। मैं आपके पास आने ही वाली थी कि आपका सन्देश मिला। सिद्धार्थ : नहीं, अभी तो यहां नहीं आये। मैं स्वयं उन्हें देखने के लिए उत्सुक विशला : जाने कहाँ होंगे । सारे नागरिक उनके चारों ओर एकत्रित होंगे। मुझे तो भय है उनकी वीरता पर किमी की कुदृष्टि न लग जाय । ५१
SR No.010256
Book TitleJay Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamkumar Varma
PublisherBharatiya Sahitya Prakashan
Publication Year1974
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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