SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जय वर्धमान वहां पहुंचा तो ज्ञात हुआ तुम वहाँ से भी चले आये । अव यहाँ आकर मोराक ग्राम में तुम्हें पाया। तुमने ममता-मोह का इतना त्याग किया और संन्यास ले लिया ?, वर्धमान : भाई ! यही मेरा निश्चय था। यह तो कहें, संन्यास लेने में मुझे देर हो गई । मैंने माता-पिता को वचन दिया था कि जब तक आप दोनों जीवित हैं, तव तक संन्यास ग्रहण नहीं करूँगा। उनके जाने के बाद अब मैं स्वतंत्र हूँ। मैंने गृहस्थाश्रम छोड़ दिया। नन्दिवर्धन : और यशोदा को भी छोड़ दिया? वर्धमान : वे तो मेरी इच्छा की अनुगामिनी रही हैं । वे कहती थीं कि मैं आपके माथ ही संन्याम ग्रहण करूँगी । वे अपने पिता के पास कुछ दिनों के लिए कलिंग चली गई। इमी बीच मैने अनुभव किया कि मैं मुक्त हूँ और मैंने संन्यास ले लिया। नन्दिवर्धन : यह अच्छा नहीं हुआ, वर्धमान ! जब वे कलिंग मे लौटेंगी और तुम्हें राज-भवन में न पायेंगी तो क्या दशा होगी उनकी ? यह नहीं सोचा? बड़े अहिमा के प्रचारक हो ! उनको मर्मान्तक कष्ट देकर तुम किस अहिंसा की बात करोगे? वर्धमान : मैंने कहा न, भाई ! कि वे स्वयं संन्यास ग्रहण करेंगी। संन्यास ग्रहण करने पर हर्ष-विषाद, लाभ-हानि, जीवन-मरण के सम्बन्ध में विचार करने की मनोवृत्ति ही नहीं होगी। नन्दिवर्धन : तो तुमने अपने राजकीय कर्तव्यों से मुख मोड़ लिया । स्वयं संन्यासी बन कर अपनी पत्नी को भी संन्यासिनी बना दिया । क्यों ? महावीर वर्धमान ! क्या इमे तुम अपनी महावीरता समझते हो? किस समय कौन-सा कार्य करना उचित है, यह भी नहीं समझते ?
SR No.010256
Book TitleJay Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamkumar Varma
PublisherBharatiya Sahitya Prakashan
Publication Year1974
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy