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________________ Amber Shastra Bhandar No.::7 संतोनाम्नां जिन राजध्यानकृतसहरिराजः । पुत्रं धर्मादुत्पादयामास । १८ ॥ पत्त्यां मनः सुखाख्यं सति प्रभूत्वेऽपि मदो न यस्य रतिः परस्त्रीषु न यौवनेऽपि । परोपकारैकनिधिः स साधुर्धम्र्मात्सुखः कस्य न माननीयः ॥ १६ ॥ जैनेन्द्रां सिरोजभक्तिरचला बुद्धिर्विवेकांचिता लक्ष्मीर्दीनसमर्पिता सकरुणं चेत: सुधायुग्वचः । रूपं शीलतं परोपकरणव्यापार निष्ठ वपुः शास्त्रं चापि मनः सुखे गतमदं काले कलौ दृश्यते ॥ २० ॥ संघभारधरो धीरः साधुर्वासाधरः सुधीः । श्रावकाचारमचीकरदमु वसुमती सिद्धये मुदा ॥ २१ ॥ यावत्सागरमेखला स्वररी . कुल संकुगमितं तावन्नंद पुत्र-पौत्र सहितो वासाधरः श्रावकः ॥ २२ ॥ Author Size Extent Description Date of the Original Subject SWARODAI --MOHANDAS KAYASTH -12" X 5" --12 Folios, यावत्सुवर्णाचल: -- Maghashirs Sudi 7, V. S. 1687 -AYURVEDA Scribal Remarks: 1 Country paper, rough and grey; Devanagari characters in bold, big and elegant hand-writing; borders ruled in three lines; edges in two lines; the condition of the manuscript is satisfactory; it is a complet work written in Hindi. [ 7 अस्थान || विख्यात | तात ॥ सात । कवि काइथ कुल अहिठान | कथित मोहनदास श्री गर्ग के 'कुल ढिग नेमखार के निकट ही कनोजे के कुरस्थ गाँव तहाँ हमरो वासु निजू श्री जादौ मम सवत सौरह सं रच्यो उपरि असी विक्रमते, बीतें वस मारग सुदि तीथी सात ॥ इति श्री पवन विजय स्वरोदय ग्रन्थ मोहनदास कायथ अहिठान विरचिते भापा ग्रन्थं निवृत्ति प्रवृत्ति मार्गखंड ब्रह्माण्ड ज्ञान तथा शुभाशुभ नाम दशिणं स्वर तन भय विचार काल साधन सम्पूर्ण |
SR No.010254
Book TitleJaipur aur Nagpur ke Jain Granth Bhandar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationCatalogue
File Size7 MB
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