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जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
करवो धनिराम ॥ १ ॥ तेह तथा जे दोष वत्रीश, ते पनणिगुं मन घरीय जगीश ॥ ते सांगली श्रावक खप करे, लीलें जिम नवसायर तरे ॥ २॥ वस्त्रे वांदे वाली पालवी, प्रथम दोष ए जुगतो नथी ॥ प्रातुं पातुं यासन याय, वीजुं ए दूपण कहेवाय ॥ ३ ॥ दृष्टि न राखे एके दिरों, जोवे चपलप चितुं दिशें ॥ त्रीजो दोष सामायिक जाण, व्रतधर परिहर हियडे खाए ॥४॥ अल्प बहुल लागे सावऊ, चोथे दोप निवारो कऊ ॥ पूठें जींत पाटी ने यंन, पंचम दोप जे जे अवष्टंन ॥ ५ ॥ प्रति संकोडे अंग नवंग, बो दोप करे व्रतनंग ॥ खालस मोडे ए सातमो, जांजे करडक ए यांग्मो ॥ ६ ॥ नवमो मल उतारे जेह, मीलतणो व्रत दूपे तेह || खण खणे ए दशमो जाए, टालंतां व्रत कहे प्रमाण ॥ ७ ॥ यंगें विश्रामण कारवे, दोष ग्यारसे व्रत हारवे || वारम दोप जे निश करे, चार दोप, कायना. परिहरे ॥ ८ ॥ वचन तथा दश दोष पिठाण, परिहर चतुरपणुं चित्त - या | वोले कुवचन पहेलो दोप, लाग्यो जाए म घर संतोष || || वीजो म जणीश सहसात्कार, यार्त्तस्वर दुवे त्रीजे वार ॥ याप दें जे बोलीयें, चोथो दोप विपे तो लीये ॥ १० ॥ जयतां सूत्र म कर संदेप, पंचम दोप तयो निक्षेप | कलह में मंमिश जा व्रत सार, बघा दोष तो परिहार ॥ ११ ॥ विकथा सप्तम दोष निवार, पर उपहास प्राठमो विचार | संपद पद विणु उतावलो, म जो नवम दोपथी दलो ॥ १२ ॥ जाव याव एम कहियें नहिं, दशम दोष परहरियें सही ॥ वचन तथा ए जाली दोप, टाली करो सामाविक पोप ॥ १३ ॥ मनना दोष हवे सां जली, परिहर नविय दूरें रली ॥ प्रथम दोष मन नहिंय विवेक, नदु जाणो को अतिरेक ॥ १४ ॥ जस कीर्त्ति वांटे अति घणी, करे सामा विक जे तेह जली | वीजो दोप ए धागम कह्यो, नवियण जाणीने नवि यो ॥ १५ ॥ हियडे वांठे धननो लाह, त्रीजो दोष घणो गुल दाह ॥ चोथो दोष जे करे गर्व, एहथी निर्गमियुं फल सर्व ॥ १६ ॥ करे सा मायिक जे विहतो, वारे दोप सुगुण ईहतो || पुत्र धनादिक तणुं नि दान, करतां वो दोष निदान ॥ १७ ॥ सामायिक फल विधि जे कही, शुं जाएं होगे वा नहिं ॥ एम संशय हिडे प्राणिय, सप्तम दोषने श्रुति जाणीयें ॥ १६ ॥ अष्टम करे मन छापी रोप, व्यविनय करतां नवमो
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