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________________ २०६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नव नव ढाले लहके जी ॥ चतुराने ए कंठे बाजे, आतमगुण धरी राजे जी ॥ध० ॥ २४॥ खमें करी चोपाइ दीपे, मिथ्यानावने जीपे जी॥ बातमदर्शी अर्थ करेशी, आनंद अंग महेसी जी ॥ध० ॥ २५॥ नाव नक्ति करीनविजन नशे, जे को यावी सुणशे जी ॥ धर्ममंदिर कहे ए परधाना, यापे नवे निधाना जी ॥ध ॥ २६ ॥ इतिश्रीप्रबोधचिंता मणौ ढालनाषाप्रबंधे पंमितश्रीधर्ममंदिरगणिविरचिते मोहविवेकसंग्राम हंस राजपरमपदप्राप्ति ब्रह्मस्वरूपवर्णननामा षष्ठः खमः समाप्तोयम् ॥६॥ अस्मि न्यंथे खंम ६, तन्मध्ये प्रथम खंभे ढाल ,हितीय खंभे ढाल ११, तृतीय खं में ढाल १६, चतुर्थ खमे ढाल १३, पंचम खंमे ढाल १०, षष्ठखेमे ढाल १ए, सर्व संख्या ढाल ७६. अस्मिन् ग्रंथे सर्व गाथा संख्या १७१२, श्लोक संख्या २३२५॥इति श्रीपंमितधर्ममंदिर विरचित मोहविवेकरासः समाप्तः॥ ॥अथ ॥ ॥श्रीनपमिति नवप्रपंच आश्रयी धर्मनाथजीनी विनति रूप स्तवन प्रारंनः॥ ॥दोहा॥ ॥चिदानंद चित्तव, चिंततीर्थकर चोवीश ॥ जगनपगारी जगतगुरु, ज्यो तिरूप जगदीश ॥१॥ आपे आप विचारतां, सहियें आपस्वरूप ॥ प्रगटे ममतातृण बिपे, समता अमृतकूप ॥ २ ॥ जब लग जग नूलो जमे, तब लग शिवपुर दूर ॥ जब लग हृदय न ऊगमे, बातम अनुनव सूर ॥३॥ मनबंधव विनति करूं, बोडी चपल खनाव ॥ सज थइ संनालिये, यावि ये बातम नाव ॥४॥ केवल चिन्मय चतुर तुं, तूं होंसी तूं हंस ॥ अल ख अरूपी अकल गति, अविनाशी अवतंस ॥ ५ ॥ लब्धि सिदि लहरी जलधि, महिमानिधि महाराज ॥ मोहादिक वयरी विकट,तिणे लोपी तुज लाज ॥६॥ राजदि तुज सवि हरी, दारख्यां दुःख अनेक ॥ अब आतम यालस तजी,चेत चेत धरि टेक॥७॥नाम गम तस दाखवे, नपगारीय रिहंत ॥ आपबलें अरि जीतिये, साहज दे जगवंत ॥ ७॥ आराधो श्रादर केरी, अडवडियां आधार ॥ विनय करीने वीनवो, शरणागत साधार॥ए॥
SR No.010248
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1890
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size45 MB
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