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________________ १ए जैनकथा रत्नकोष नाग पहेलो. लो एवो जे तमारो दिव्य वाणीरूप ध्वनि ते, हर्षे करी जेणे ग्रीवा ऊर्ध्व करेली ले एवा हरिणादि वनचर जीवोयें पण (पीतः के०) पान कस्यो ले. अर्थात् श्रवण कराय डे ॥ ३ ॥ ॥ तवेंधामंधवला, चकास्ति चमरावली ॥ हंसालिरिव वक्रान, परि चर्यापरायणा ॥ ४ ॥ नावार्थ:-हे नाथ ! चंकांति सरखी निर्मल एवी चमरावली, तमारा पार्श्वनागने विपे तमारा मुखकमलनी सेवा करवा माटें तत्पर एवी हंसश्रेणीज जाणे होय नहिं ! एवी शोने के ॥४॥ __॥ मृगेंशसनमारूढे, त्वयि तन्वति देशनाम् ॥ श्रोतुं मृगाः समायांति, मृगेंऽमिव से वितुम् ॥ ५ ॥ जावार्थ:-हे नाथ! सिंहासनने विपेचारूढ एवा तमें, धर्मदेशनाने विस्तार करवा लागे बते, (मृगाः के० ) सर्व व नचर जीवो ते धर्मदेशनाने श्रवण करवा माटें आवे , ते जाणे मृगादि वनचरजीवो वनमध्ये सिंहने सेवन करवा माटेंज प्राप्त थया होयं नहिं ! एम नासे . ए उत्पेदा ॥ ५ ॥ ॥ नासां चयैः परिवृतो, ज्योत्स्नानिरिव चश्माः ॥ चकोराणामिव ह शां, ददासि परमां मुदम् ॥ ६॥ नावार्थ:-हे नाथ ! कांतिना समुदायें करी आसपास सेवन करेला एवा तमें चंडिकायें परिवृत एवो चं जेम चकोरपदीयोनी दृष्टिने परमानंद नत्पन्न करे , तेम तमें पण देशनाने श्रवण करनारा लोकोनी दृष्टिने परम यानंद नत्पन्न करो बगे ॥६॥ ॥ कुंडनिर्विश्वविश्वेश, पुरोव्योम्नि प्रतिध्वनन ॥ जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं, साम्राज्यमिव शंसति ।। ७ ॥ नावार्थ:-हे विश्व विश्वेश ! तमारा अपना गमा आकाशने विपे नादने नत्पन्न करनारो जे कुंकुनि, ते सर्व जगत्मध्ये नीरागी पुरुषोने विपे पण तमारा उत्कृष्ट एवा साम्राज्यने जाणे कथन क रतो होय नहिं ! एम जासे ले. ए पण नत्प्रेदा ले ॥ ७ ॥ ॥ तवोर्ध्वमूर्ध्वं पुण्यर्डि, क्रमसब्रह्मचारिणी ॥ बत्रत्रयी त्रिवन, प्रनु त्वप्रौढिशंसिनी ॥ ॥ नावार्थः-हे नाथ ! तमारा मस्तकने विषे एक उपर बीजुं, तेनी उपर त्रीजुं, एवा कमें करी रहेनारी जे बजत्रयी ,ते पु एयलक्ष्मीयें करी उत्तरोत्तर वृद्धि पामनारो जे अनुक्रम, तेनी (सब्रह्मचा रिणी के०) सरखी होती थकी तमारूं जे त्रिभुवननु प्रनुत्व, तेनी प्रौढता ने कथन करती बता रहे ॥ ७ ॥
SR No.010246
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1867
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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