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________________ १७० जैनकथा रत्नकोष नाग पदेलो. बिंब के०) सूर्यबिंब (तिमिरमंमलं के०) अंधकारना ममलने नाश पमाडे जे. वली जेम (वजं के०) वज (मंहीध्रनिवहं के) पर्वतसमूहने नाश पमाडे जे. ( तथा के० ) तेम ( समयं के०) समग्र एवं (कर्म के ) कर्म तेने (एकमपि के०) एक एवं पण (वैराग्यं के०) वैराग्य ने ले ते नाश पमाडे ले ए ___टीकाः-पुनराह ॥ चंमानिलेति ॥ यथा चंझानिलस्फुरितं प्रचंमवायुस्फू र्जितं अब्दचयं मेघघटां अंतं विनाशं नयते प्रापयति। पुनर्यथा दावार्चिवा मिक्समूहं अंतं प्रापयति पुनर्यथा अर्कबिंब सूर्यबिंब तिमिरमंमलं अंधकार समूहं अंतं नयते। पुनर्यथा वजं इंशयुधं महीध्र निवहं पर्वतसमूहं अंतं विना शं नयते प्रापयति । तथा एकमपि वैराग्यमेव समयं कर्म अंतं नयते॥॥ जापाकाव्यः-श्रानानकचंद ॥ ज्यों समीर गंजीर, घनाघन बय करै ॥ वज विनासै शिखर, दिवाकर तम हरै॥ ज्यौं दव पावक पूर, दहै वनकुंज कों ॥ त्यौं नंजै वैराग्य कर्मके पुंजकों ॥ ए० ॥ वली पण कहे . शिखरिणीटतम् ॥ नमस्या देवानां चरणवरिवस्या शुनगुरो, स्तपस्या निःसीमक्रमपदमुपास्या गुणव ताम्॥निषद्याऽरण्ये स्यात् करणदमविद्या च शिव दा, विरागः क्रूरागः दपणनिपुणोंऽतः स्फुरति चेत् ।' अर्थ:-( चेत् के०) जो (अंतः के) हृदयने विपे ( विरागः के) वैराग्य, (स्फुरति के०) स्फुरे , तोज.(देवानां के०) अरिहंतादि देव तेने करेलो ( नमस्या के०) नमस्कार ते पण ( शिवदा के० ) मोद देनारो (स्यात् के०) थाय. तथा ( गुनगुरोः के०) सारा गुरुनी (चरणवरिव स्या के० ) चरणसेवा ते पण त्यारेंज मोददायी थाय, तथा (निःसीमक मपदं के०) अत्यंत श्रम, स्थानक एवं (तपस्या के०) तप पण त्या रेंज मोददायी थाय . तथा ( गुणवतां के०) ज्ञानादिक गुणें करी युक्त एवा जननी (उपास्या के०) सेवा ते पण त्यारेंज मोद देना। थाय. तथा (अरण्ये के० ) वनने विषे (निषद्या के०) स्थिति एटले रहे ते पण त्यारेंज मोद देनारी थाय. (च के० ) तथा ( करणदमविद्या के०) प्रियदमननी विद्या पण त्यारेंज मोददायक थाय. अर्थात् ज्यारे हृदयने
SR No.010246
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1867
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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