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________________ जन ज्योतिलोंक है। भरत क्षेत्र के प्रागे हिमवन पर्वत का विस्तार भरत क्षेत्र से दूना है। इस प्रकार आगे-मागे क्रम से पर्वतों से दूना क्षत्रों का तथा क्षेत्रों से दूना पर्वतों का विस्तार होता गया है। यह क्रम विदेह क्षेत्र तक हो जानना। विदेह क्षेत्र के प्रागे-मागे के पर्वतों पौर क्षेत्रों का विस्तार क्रम से प्राधा-पाधा होता गया है। (विशेष रूप से देखिये-चार्ट नं० १) विजयाध पर्वत का वर्णन भरत क्षेत्र के मध्य में विजयाध पर्वत है । यह विजया पर्वत ५० योजन ( २००००० मील ) चौड़ा और २५ योजन ( १००००० मील ) ऊंचा है एवं लबाई दोनों तरफ से लवण समुद्र को स्पर्ग कर रही है। पर्वत के ऊपर दक्षिण और उत्तर दोनों तरफ इस धरातल से १० योजन ऊपर तथा १० योजन ही भीतर समतल में विद्याधरों की नगरियां है। जो कि दक्षिण में ५० एवं उत्तर में ६० हैं। उसमे १० योजन और ऊपर एवं अंदर जाकर समतल में पाभियोग्य जाति के देवों के भवन हैं। उससे ऊपर (प्रवशिष्ट) ५ योजन जाकर समतल पर ६ कूट हैं । इन कूटों में सिद्धायतन नामक १ कूट में जिन चैत्यालय एवं ८ कूटों में व्यंतरों के प्रावास स्थान हैं। ___इस चैत्यालय की लंबाई=१ कोस', चौड़ाई कोस, एवं ऊंचाई कोस की है। यह चैत्यालय प्रकृत्रिम है। १. चैत्यालय का यह प्रमाण सबसे जघन्य है।
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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