SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ". ॐ ॥ श्री महावीराय नमः ॥ मंगलाचरण वेदछपगंगुल-कदि- हिंद-पदरस्स संखभागमिदे | जोइस-जिरिगन्दगेहे, गरगरणातीदे रामसामि ॥ अर्थ-दो सौ छप्पन ग्रंगल के वर्ग प्रमारण (पण्णट्ठी प्रमाण ) प्रतरांगुल का जगत्प्रतर में भाग देने से जो लब्ध प्रावे उतने ज्योतिपी देव हैं। संख्यातों ज्योतिर्वासी देव एकबित्र में रहते हैं । एक-एक बिब में १-२ चंत्यालय हैं । इसलिये ज्योतिष्क देवों के प्रमाण में संख्यात का भाग देने से ज्योतिष्क देव संबंधि जिन चैत्यालयों का प्रमाण आता है जो कि श्रसंख्यात रूप ही है। उन ज्योतिष्क देव संबधि असंख्यात जिन चंत्यालयों को और उनमें स्थित जिन प्रतिमाओं को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । वर्तमान में वैज्ञानिकों की चन्द्रलोक यात्रा की चर्चा यत्र तत्र सर्वत्र हो हो रही है। जैन एवं अर्जन, सभी बन्धुगण प्राय: इस 'चर्चा में बड़ी हो रुचि से भाग ले रहे हैं, जैन सिद्धांत के अनुसार यह यात्रा कहाँ तक वास्तविक है, इस पुस्तक को पढ़ने वाले प्रास्तिक्य बुद्धिधारी पाठकगण स्वयमेव ही निर्णय कर सकते हैं ।
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy