SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 21 में शुभ मिति बैसाख कृष्ण २ को माधोराजपुरा (राज.) में स्त्रियोत्कृष्ट प्रायिका दीक्षा धारण कर ली। पापकी बुद्धि की प्रखरता को देखते हुए गुरुवर ने प्रापका नाम 'मानमती' प्रकट किया। प्रायिका दीक्षा के अनन्तर प्राचार्य प्रवर के सानिध्य में २ वर्ष तक रहने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ । पाचार्य श्री की समाधि के पश्चात् लगभग ६ वर्ष तक पू. प्रा. श्री शिवसागर जी महाराज के संघ में रह कर अनेकानेक भव्य प्राणियों को सुमार्ग दर्शाया ही नहीं अपितु मोक्षमार्ग पर भी लगाया। प्रारंभ से ही अध्ययन अध्यापन प्रापका मुख्य व्यसन-सा रहा है। यही कारण है कि आपमें जिस ज्ञान का आविर्भाव हुप्रा वह शिष्यवर्ग को पढ़ाबर ही हुआ। आपको गुरुमुख से प्रध्ययन करने का बहुत ही कम अवसर प्राप्त हुआ। वैसे तो समस्त जैन समाज आपका चिरऋणि है। किन्तु मापने मुझ जैसे जिन-जिन प्राणियों को समीचीन मार्ग पर लगाया है वे तो जन्म जन्मान्तर में भी आपके इस ऋण से उऋण नहीं हो सकते । पाप उस प्रज्वलित दीपक के समान हैं जो स्वयं जलकर भी दूसरों को प्रकाशित करता है। वास्तव में पाप वीतरागता एवं त्याग की ऐसी मशाल हैं जिनसे अनेकानेक मशालें प्रज्वलित हुई। क्षुल्लिका अवस्था से लेकर अब तक प्रापने बीसों भव्य• प्राणियों को न्याय, व्याकरण, सिद्धांतादि विषयों में उच्च कोटि का धार्मिक ज्ञान प्रदान कर जगत पूज्य पद पर पासीन कराया। जिनमें पू. मुनिराज श्री संभवसागर जी महाराज, पू. मुनिराज श्री वर्धमानसागर जी, स्व. पू. प्रायिका श्री पद्मावती जी, पू. मायिका श्री जिनमती जी, पू. प्रायिका श्री पादिमती जी, पू.
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy