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________________ परम हितैषिणी-सच्ची माता विशिष्ट विदुषीरत्न, पूज्य प्रायिका श्री ज्ञानमती जी लेखक-(संघस्थ) मोती चंद जैन सर्राफ, 'शास्त्री', 'न्यायतीर्थ' भारतवर्ष की इस पावन वसुन्धरा ने अनादिकाल से ही ऐसे नर एवं नारी रत्नों को जन्म दिया है जिनसे यह भूमि भव्यात्माओं की जन्म-स्थली एवं मुक्ति-स्थली बन गई है । इस प्रथाह संसार में उन्हीं नर-नारियों के जन्म लेने की सार्थकता है जिन्होंने मानव जीवन की वास्तविक उपयोगिता को सच्चे प्रर्थों में स्वीकार कर संसार को अमार जानकर यथा सम्भव इसका परित्याग कर मुक्ति पथ का अवलंबन लिया है। मोही, प्रज्ञानी संसारी जीवों ने निविकार, शान्त स्वभाव को समझने के लिये वीतराग, सर्वज्ञ एवं हितोपदेशी देव, वीतगग निर्ग्रन्थ गुरु एवं उनकी पवित्र स्याहाद वाणी का अवलंबन लिया है। निर्ग्रन्थ मुनि साक्षात् रत्नत्रय के प्रतीक हैं और जो भव्यप्राणी मुक्ति के इच्छुक रहे हैं उन्होंने सदैव ऐसे शांत, धीर-वीर, निर्विकार निर्ग्रन्थ साधुओं की शरण में जाकर वैराग्य की कामना की है। उन्हीं में से एक वीरात्मा हैं प्रखर प्रवक्त्री, परम विदुषीरत्न, विश्ववंच, ज्ञानमूर्ति पू० आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी जिन्होंने स्व-पर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होते हुए अपने जीवन का बहुभाग भव्यप्राणियों के हितार्थ, विपुल आपत्तियों का दृढ़ता से सामना करते हुये बिताया है।
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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