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________________ 12 जिनागम में श्रद्धा रखने वाले भव्य पुरुष प्रपने उपयोग की स्थिरता करने वाली और संस्थान विचय धर्म ध्यान में कार्यकारी होने वाली इस पुस्तक को चि से पढ़ेंगे और अन्य पाठकों को भी धर्म लाभ लेने में महयोग प्रदान करेंगे । इस पुस्तक में विशेषत: तीन विपय ग्बे गये हैं१. ज्योतिर्लोक २. भूलोक और इ. अकृत्रिम चन्यालय । १. ज्योतिर्लोक-इममें पृथ्वी नल मे १६० योजन मे लेकर ६०० योजन तक की ऊंचाई अर्थात् ११० योजन में स्थित ज्योतिषी देवों के विमानों को बतलाया है। इन विमानों से सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तार मय अपने परिवारों के ध्रुवों को छोड़ कर अढ़ाई द्वीप में तो मुमेरू पर्वत के चारो ओर परिभ्रमण करते हुए दिवाये गये हैं और इसके बाहर वाले अवस्थित दिखाये गये हैं । पुस्तक में इन्हीं विमानों की स्थित ऊचाई और विस्तार का ठीक प्रमाण ग्रन्थान्तरों में देख शोध कर मही लिग्वा है। सूर्य और चन्द्र विमानों में जिन चैत्यालयों का स्वरूप भी ययावत् संक्षिप्त रूप से बताया गया है। किस देव की कितनी स्थिति है इसे भी पुस्तक में खोला गया है और किस-किस प्रकार उनका भ्रमण है उस पर भी पूर्णप्रकाश डाला गया है । सूर्य एवं चन्द्रमा जिन १८४ वीथियों में होकर गमन करते हैं उनका प्रमाण शास्त्रोक्त विधि से सही निकाल कर लिखा गया है। जम्बूद्वीप में होने वाले दो सूर्य और दो चन्द्रमा किस प्रकार सुमेरु के चारों मोर परिभ्रमण करते हैं, उनकी गतियों का माप माधुनिक मान्य माप के आधार पर सही निकाला गया है। रात दिन का होना, उनका बड़ा छोटा होना, ऋतुओं का
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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