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________________ जैन ज्योतिलोक भृभ्रमण का खंडन (श्लोकवातिक तीसरी अध्याय के प्रथम सूत्र की हिंदी से) कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है। किंतु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है। यह भूमि स्थिर भी नहीं है। हमेशा ही ऊपर नीचे घूमती रहती है तथा सूर्य, चन्द्र, शनि, शुक्र आदि ग्रह, अश्विनी, भरिणी आदि नक्षत्रचक्र, मेरू के चारों तरफ प्रदक्षिणा रूप अवस्थित है, घूमते नहीं हैं। यह पृथ्वी एक विशेष वायु के निमित्त से ही घूमती है। इस पृथ्वी के घूमने से ही सूर्य, चंद्र, नक्षत्र आदि का उदय, अस्त आदि व्यवहार बन जाता है इत्यादि । दूसरे कोई वादी पृथ्वी का हमेशा अधोगमन ही मानते हैं एवं कोई २ अाधुनिक पंडिन अपनी बुद्धि में यों मान बैठे हैं कि पृथ्वी दिन पर दिन सूर्य के निकट होती चली जा रही है । इसके विरुद्ध कोई २ विद्वान प्रतिदिन पृथ्वी को सूर्य से दूरतम होती हुई मान रहे हैं। इसी प्रकार कोई २ परिपूर्ण जल भाग से पृथ्वी को उदित हुई मानते हैं। किंतु उक्त कल्पनायें प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं होती हैं । थोड़े ही दिनों में परस्पर एक दूसरे का विरोध करने वाले विद्वान खड़े हो जाते हैं और पहले-पहले के विज्ञान या ज्योतिष
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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