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________________ जैन ज्योतिलोंक समुद्र पर्यन्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च पाये जाते हैं। वहाँ तक असंख्यातों व्यन्तर देवों के आवास भी बने हुये हैं सभी देवगण वहां गमनागमन कर सकते हैं। मध्य लोक १ राजू प्रमाण है । मेरु के मध्य भाग से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक प्राधा राजू होता है । अर्थात् माधे का आधा (३) राजू स्वयंभूरमण समुद्र की प्रभ्यन्तर वेदी तक होता है पौर राजू में स्वयम्भूरमण द्वीप व सभी असंख्यात द्वोप समुद आ जाते हैं। अढाई द्वीप के चन्द्र (परिवार सहित) । द्वीप, समुद्रों के | चन्द्र सूर्य ग्रह, नक्षत्र | नारे द्वीप, समुद्रों के | चन्द्र नाम नक्षत्र तारे ६६९७५/२ | कोड़ा कोड़ी | ११२ ६६६७५४४॥ जम्बू द्वीप में लवण समुद्र में | ४ | ४ धातकी खंड में | १२| कालोदधि समुद्र ४२ पुष्कराचं में १०५६ | ३३६ ६६६७५४ १२, ३६६६ | ११७६ ६६६७५४४२,, २०१६ ६६६७५४७२, • कुल योग १३२ १३२ ११६१६/३६९६ ४००० कोड़ा कोड़ी
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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